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हमारे समाज में तर्कहीन मान्यताएं —4

jara sochiye
jara sochiye
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मृत्यु भोज
mrityu bhoj
हिन्दू समाज में जब किसी परिवार में मौत हो जाती है, तो सभी परिजन बारह दिन तक शोक मानते हैं .तत्पश्चात तेरहवीं का संस्कार होता है, जिसे एक जश्न का रूप दे दिया जाता है. .इस दिन के संस्कार के अंतर्गत पहले कम से कम तेरह ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है जीसे जीमना भी कहते हैं.उसके बाद पंडितों द्वारा बताई गयी वस्तुएं मृतक की आत्मा की शांति के लिए ब्राह्मणों को दान में दी जाती हैं.उसके पश्चात् सभी आगंतुक रिश्तेदारों ,मित्रों एवं मोहल्ले के सभी अड़ोसी- पड़ोसियों को मृत्यु भोज के रूप में दावत दी जाती है.इस दावत में अन्य सभी दावतों के समान पकवान एवं मिष्ठान इत्यादि पेश किया जाता है. सभी आगंतुकों से दावत खाने के लिए आग्रह किया जाता है.जैसे कोई ख़ुशी का उत्सव हो.विडंबना यह है ये सभी संस्कार कार्यक्रम घर के मुखिया के लिए कराना आवश्यक होता है,वर्ना मृतक की आत्मा को शांती नहीं मिलती ,चाहे परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण उसकी शांती वर्षों के लिए भंग हो जाय (उसे कर्ज लेकर संस्कार आयोजित करना पड़े ).दूसरी तरफ यदि परिवार संपन्न है,परन्तु घर के लोग इस आडम्बर में विश्वास नहीं रखते तो उन्हें मृतक के प्रति संवेदनशील और कंजूस जैसे शब्द कह कर अपमानित किया जाता है .
क्या यह तर्क संगत है ,परिवार के सदस्य की मौत का धर्म के नाम पर जश्न मनाया जाय ?क्या यह उचित है आर्थिक रूप से सक्षम न होते हुए भी अपने परिजनों का भविष्य दांव पर लगा कर पंडितों के घर भरे जाएँ ,और पूरे मोहल्ले को दावत दी जाय ?क्या परिवार को दरिद्रता के अँधेरे में धकेल कर मृतक की आत्मा को शांती मिल सकेगी ?क्या पंडितों को विभिन्न रूप में दान देकर ही मृतक के प्रति श्रद्धांजलि होगी ,उसके प्रति संवेदन शीलता मानी जाएगी ?

कर्ण -छेदन संस्कार (परोजन );
parojan
परिवार में बच्चा जब बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश करता है तो उसके कर्ण छिदवाने के लिए कर्ण -छेदन संस्कार का आयोजन किया जाता है ,जिसे परोजन के नाम से भी जाना जाता है .यह संस्कार जोड़े में किया जाता है.जैसे दो भाई या फिर भाई और बहन .इस आयोजन में एक विवाह की भांति सारी रस्में निभाई जाती हैं ,पंडितों को दान पुन्य ,सभी रिश्तेदारों को आमंत्रित कर लेन-देन की रस्में ,ढोल बजा ,घर की सज सजावट तथा सभी अड़ोसी पडोसी ,मित्रों को बड़ी सी दावत .अक्सर इसमें लाखों रुपये व्यय किये जाते हैं .क्या एक छोटे संस्कार को इतना बड़ा रूप देना , आज के महंगाई के युग में फिजूल खर्ची तर्कहीन और अप्रासंगिक नहीं है ? क्या संपन्न लोगों द्वारा अपनी अमीरी का प्रदर्शन नहीं है ?क्या मध्यम वर्गीय व्यक्ति जो सभी संस्कारो को यथावत मनाने में विश्वास करते हैं उन पर आर्थिक दबाब नहीं है ?क्या धर्म के ठेकेदारों द्वारा जनता से लूट खसोट नहीं है ?

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