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सेरोगेसी का व्यापार

jara sochiye
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आज वैज्ञानिक शोधों ने संभव बना दिया है की जो दंपत्ति शारीरिक अक्षमता के चलते बच्चा प्राप्त नहीं कर सकते उन्हें कृत्रिम विधि से किसी अन्य महिला को गर्भस्थ करा कर बच्चे का सुख प्राप्त हो सकता है.उन्हें किसी अन्य महिला को गर्भस्थ करने और प्रेगनेंसी के दौरान होने वाले खर्च सहित, उसकी फीस चुकानी होती है.इस प्रकार से प्राप्त बच्चे को किराये की कोख या सेरोगेट मदर की सेवाएं लेने का नाम लिया जाता है.इस प्रकार निःसंतान दंपत्ति के लिए संतान प्राप्त करना संभव हो गया है,और जो धनवान महिलाएं प्रसूति के दौरान होने वाली तकलीफों से बचना चाहती हैं,उनके लिए पैसे के बल पर बिना कष्ट के बच्चा प्राप्त करने का जरिया मिल गया है.आज पूरे विश्व में यह व्यापार जोरों से चल रहा है.विश्व के विकसित देशों के दंपत्ति गरीब एशियाई देशों की महिलाओं की सेवाएं ले रहे हैं.कारण,भारत जैसे गरीब देश में मात्र सात हजार डालर किराये की कोख प्राप्त हो जाती जिसके लिए उन्हें अपने देश में पच्चीस हजार डॉलर खर्च करने पड़ते हैं.इस आकर्षण के कारण उपलब्ध आंकड़ो के अनुसार इस फलते फूलते कारोबार से अपने देश को सन २०१२ में २.३ बिलियन डालर की विदेशी मुद्रा प्राप्त होने का अनुमान है.जो भारतीय मुद्रा के अनुसार बारह हजार करोड़ रूपए से भी अधिक रकम बैठती है.उपरोक्त आंकड़े तो सिर्फ एक जानकारी देने मात्र के लिए हैं.ये कोई सेरोगेसी को लाभप्रद साबित करने के लिए नहीं हैं. क्या विदेशी मुद्रा कमाने के नाम पर एक गरीब महिला की मजबूरी का लाभ उठा कर किराये की कोख के व्यापार को उचित माना जा सकता है? क्या कोख किराये पर लेना और बच्चे को किसी अन्य दंपत्ति द्वारा ले जाना महिला का भावनात्मक शोषण नहीं है?तर्क में यह बात भी कही जा सकती है की जब दोनों पक्ष राजी हैं तो किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए.और कानून भी इसके लिए कोई इंकार नहीं करता.इसका उत्तर तो एक भुक्तभोगी महिला ही दे सकती है जब उसे अपने बच्चे को किसी अन्य को सौंपने का समय आता है और भविष्य में भी अपने बच्चे की कोई जानकारी मिल पाने की कोई सम्भावना नहीं होती.अर्थात पैसे के माध्यम से उसके मातृत्व को दांव पर लगाया जाता है.शायद चिकित्सा जगत की उन्नति ने महिलाओं के शोषण का एक नया जरिया खोल दिया.
यदि हम सिर्फ सेरोगेसी स्वीकार करने वाली महिला की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए सोचते हैं ,तो कुछ हद तक यह उनके जीवन में एक उजाला लेकर आने वाला माध्यम लगता है, जो उन्हें भूखो मरने से निजात दिलाता है .परन्तु जब मानवीय पहलू से सोचा जाये तो यह उसका धन के लिए किया जाने वाला शारीरिक शोषण ही लगता है .अर्थात सेरोगेट मदर बनने वाली महिला की आर्थिक स्थिति ही इस प्रकार के कार्य को स्वीकार करने की मजबूरी है .स्पष्ट है यदि देश में कोई निर्धनता के स्तर से नीचे जीवन यापन करने वाला न हो तो, शायद ही कोई महिला सेरोगेसी को स्वीकार करेगी.जिससे निष्कर्ष निकलता है समस्या सेरोगेसी के चलन में नहीं है बल्कि समस्या हमारे देश या अन्य एशियाई देशो की दरिद्रता में निहित है .सबसे दर्दनाक पहलू जब होता जब वह सेरोगेट मदर बनी महिला अपने बच्चे को अनुबंधित दंपत्ति को सौंपती है .जब तक उसे सभी सुविधाएँ मिलती हैं तो उसे आभास भी नहीं होता की उसने क्या अनुबंध किया है , क्योंकि उसकी दरिद्रता उसे मातृत्व प्रेम के बारे में सोचने ही नहीं देती .वायदे के अनुसार जब उससे उसका बच्चा अलग होता है,यह जानते हुए भी की उसका बच्चा उसे अपने पास रहने से अधिक सुखी जीवन जीएगा ,तब भी उसे जो दर्द होता वह अकल्पनीय है.यदि दुर्भाग्यवश उसका बच्चा मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग पैदा हुआ,और खरीदार दम्पती ने बच्चे को लेने से इंकार कर दिया तो,उसके लिए जीवन भर त्रासदी का रूप ले लेता है.
यद्यपि हमारे देश में इस समस्या को भयावह बनने से रोकने,और महिलाओं के स्वास्थ्य को ध्यान रखते हुए ,कुछ उपाय भारत सरकार द्वारा किये गए हैं.२००२ में सेरोगेसी के सन्दर्भ में बने कानून के अनुसार किराये पर कोख की सेवा देने वाली महिला की उम्र कम से कम ३५ वर्ष होनी चाहिए.साथ ही किराये पर देने की संख्या को अधिकतम पांच बार तक सीमित किया गया है.अनुबंध में विदेशी खरीदार को बच्चे को अपने देश की नागरिकता दिलाने का आश्वासन भी देना होता है.परन्तु यह कानून सेरोगेसी को रोकने के लिए नहीं है,बल्कि सेरोगेसी की अनुमति देकर, नारी शोषण को निमंत्रण देता है.

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