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हमारी शिक्षा पद्धति कितनी सार्थक है?

jara sochiye
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(आजादी के पश्चात् हमारे देश में चहुँ ओर बहु मुखी विकास देखने को मिलता है, परन्तु यह भी कटु सत्य है हमारे देश की सरकारों में इच्छा शक्ति के अभाव में भ्रष्टाचार,और बेरोजगारी ने अपने पंख फैला रखे हैं।जिस कारण अमीर और गरीब के मध्य खाई बढती जा रही है। समृद्धि कुछ व्यक्तियों तक सीमित हो कर रह गयी है .सिर्फ शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो मध्य आए वर्गीय एवं अल्प आए वर्गीय व्यक्तियों और छात्रों को समृद्धता की ओर ले जा सकती है।देश का सर्वांगीण विकास भी तब ही संभव है जब देश के हर परिवार में खुशियाँ आ सकें, प्रत्येक परिवार समृद्ध हो सके। अतः यह विचारणीय, ज्वलंत प्रश्न है, की हमारी शिक्षा पद्धति अपने उद्देश्य में कितनी सार्थक है।)

शिक्षा का मूल उद्देश्य ;

किसी भी व्यक्ति को शिक्षा की आवश्यकता क्यों पड़ती है?अर्थात शिक्षा ग्रहण करना क्यों आवश्यक है? प्रारंभ में मानव जीव भी अन्य जीवों की भांति एक वन्य प्राणी था,परन्तु मानव अपनी बुद्धि के सहारे अनेकों आयामों में विकास करता गया और जो आज भी निरंतर जारी है।कारण एक पीढ़ी जो भी उन्नति अपने अनुभव,बुद्धि के विकास से करती है,आगे आने वाली पीढ़ी को शिक्षा द्वारा उसके कार्यकारी अवस्था (युवावस्था) आने तक सब कुछ समझा देती है,और अगली पीढ़ी फिर उसमें अपनी बुद्धि एवं श्रम द्वारा कुछ और ज्ञान एकत्र कर आने वाली पीढ़ी को स्थानांतरित कर देती है।इस प्रकार यह क्रम जारी रहता है।अतः मानव को उन्नति के पथ पर निरंतर अग्रसर होते रहने के लिए,वर्तमान जीवन शैली को अपनाने की क्षमता विकसित करने के लिए ,प्रत्येक व्यक्ति का शिक्षित होना आवश्यक है।और शिक्षित होकर ही वह अपनी मेधा शक्ति से उस ज्ञान में कुछ वृद्धि भी कर पाता है। शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है ;-

भौतिक उद्देश्य ;

–क्योंकि मानव उन्नति पथ पर निरंतर अग्रसर रहता है,अतः जो जितना ज्ञानवान हो जाता है, उतना ही अधिक मानव की उन्नति में सहभागी बन पाता है।और उतना अधिक मूल्यवान कार्य के द्वारा धन भी अधिक प्राप्त कर सकता है।अतः शिक्षा द्वारा मानव उन्नति के उद्देश्य के साथ साथ अपने भौतिक उपलब्धियों को पा सकने की क्षमता रखता है।और अधिक शिक्षित व्यक्ति उत्तम जीवन निर्वाह करता है,अपने लिए भौतिक सुखों के द्वार खोल लेता है।

सामाजिक उद्देश्य ;–

कोई भी शिक्षित व्यक्ति समाज के लिए उपयोगी होने के साथ साथ समाज में रहने लायक स्वयं को तैयार कर पाता है।उसे ज्ञान होता है की किस प्रकार समाज में सभ्यता के साथ,मिलजुल कर,किसी को कष्ट पहुंचाय बिना जीना चाहिए। शिक्षा ही व्यक्ति को समाज की जीवन शैली के साथ रहने की योग्यता दिलाती है। सभ्य समाज के लिए व्यक्ति का शिक्षित होना परम आवश्यक है।

नैतिक उद्देश्य ;

शिक्षा द्वारा ही इन्सान उचित अनुचित आचरण में भेद कर पाता है,और अपराधों की दुनिया से दूर रह पाता है।अतः नैतिक शिक्षा द्वारा ही इन्सान अपने व्यवहार को सुधार सकता है,और अनेक बुराईयों से बचा रह सकता है।जिससे समाज को व्यवस्थित रखने के साथ साथ स्वयं को भी शारीरिक और मानसिक लाभ प्राप्त होता है।

शारीरिक उद्देश्य;

शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा वह अपने स्वास्थ्य के बारे में समझदारी विकसित कर सकता है।अनेक बीमारियों से बचाव की जानकारी पा लेने के कारण, वह अपने जीवन को रोग रहित तथा सुख पूर्वक व्यतीत कर सकता है। स्वस्थ्य शरीर वाला व्यक्ति ही समाज की उन्नति में भागीदार बन सकता है।

उन्नत समाज के अनुरूप जीने की क्षमता ;

मानव समाज नित्य उन्नति करता जाता है ,जैसे पहले भाषा का विकास हुआ, फिर समाज का निर्माण हुआ। तत्पश्चात अनेक भौतिक सुविधाओं की खोज हुई। अतः प्रत्येक पैदा होने वाले मानव को वर्तमान समाज और समाज की जीवन शैली को अपनाने की क्षमता विकसित करने के लिए शिक्षा की महती आवश्यकता होती है।अनेक नयी नयी खोजों,नए नए उपकरणों को चला पाने की योग्यता विकसित करना आवश्यक होता है,जो शिक्षा द्वारा ही संभव है। अपने देश की राष्ट्रिय शिक्षा निति के अंतर्गत शिक्षा के प्रचार प्रसार के भारी प्रयास किये गए ,परन्तु सरकार के सभी प्रयास जनता को साक्षर बनाने तक(हस्ताक्षर करने की योग्यता ) या फिर लिखने पढने की योग्यता विकसित करने तक सीमित रह गए। जो शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य को पूरा नहीं करते। सरकार द्वारा संचालित विद्यालयों, विशेष कर प्राथमिक पाठशालाओं की जर्जर स्थिति से सभी परिचित हैं।कहीं स्कूल की छत नहीं है,या ईमारत ही नहीं , तो कहीं पीने का पानी और शौचालय की व्यवस्था नहीं है, कहीं स्कूल में बच्चे बहुत कम है, तो कहीं बच्चे है,परन्तु अध्यापक आवश्यकतानुसार नहीं हैं।जब पाठशालाएं मानवीय आवश्यकताओं को ही पूर्ण नहीं कर पाती तो वहा शिक्षा का स्तर क्या हो सकता है,यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है, कैसा   है हमारा शिक्षा तंत्र। आज देश में 621 विश्विद्यालय एवं 33500 महा विद्यालय उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए समर्पित हैं।जो प्रति वर्ष 35 लाख युवकों को उपाधियाँ बांटती हैं,परन्तु सिर्फ डेढ़ या दो लाख युवक ही देश के विकास में सहयोगी बन पाते है, अपने जीवन को सफल बना पाते हैं। शिक्षा स्तर अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप न होने के कारण शेष युवक शिक्षा के उचित लाभ से वंचित रहते हैं।।अंतर्राष्ट्रीय फार्मों को उनकी आवश्यकता के अनुरूप योग्य युवक उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। जबकि देश में उच्च शिक्षा प्राप्त युवकों में बेरोजगारी का ग्राफ निरंतर बढ़ रहा है।शिक्षा की निम्न गुणवत्ता के कारण ही शिक्षा के मामले में हमारे देश का स्थान विश्व के सबसे पिछड़े देशों में आता है।

क्या हमारी शिक्षा प्रणाली उद्देश्य परक साबित हो रही है?

सर्वप्रथम शिक्षा के मूल उद्देश्य से प्रारंभ करते हैं।मानव विकास के लिए विद्वान् युवकों का सहयोग आवश्यक है। छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए योग्य शिक्षकों की आवश्यकता होती है, और शिक्षको की निष्ठा, परिश्रम एवं विद्वता ही उच्च मेधावी छात्रों को तैयार कर सकती है।।विद्यार्थियों में शिक्षा में रूचि पैदा करना,उनको सभी सुविधाएँ उपलब्ध कारना भी शिक्षालयों की जिम्मेदारी है,ताकि वे अधिक से अधिक उच्च स्तरीय एवं मेधावी छात्रों को, देश को उपलब्ध करा पायें। साधारण स्तर की शिक्षा से शिक्षा के मूल उद्देश्य को पूरा नहीं किया जा सकता।हमारी शिक्षा प्रणाली शिक्षकों और विद्यार्थियों में रूचि पैदा कर पाने में असफल रही है।शिक्षा के क्षेत्र में अपेक्षाकृत कम योग्यता वाले युवक आते हैं.अतः साधारण स्तर के शिक्षक साधारण स्तर की शिक्षा ही दे सकते हैं।यदि शिक्षक मेधावी होगा तो वह विद्यार्थियों को उच्च स्तरीय शिक्षा दे पायेगा,अतः मेधावी युवकों को शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए प्रेरित करना आवश्यक है। यदि भौतिक उद्देश्यों पर विचार किय जाय तो हमारा शिक्षा तंत्र पंगु साबित हो रहा है।कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम युवको को बाबू बनाने की क्षमता रखते हैं। जिससे देश को उत्पादक कार्यों के लिए योग्य श्रमिक बल उपलब्ध नहीं हो पाता।युवको को रोजगार के पार्यप्त अवसर नहीं मिल पाते।यदि शिक्षित युवक शिक्षा प्राप्त कर बेरोजगार रहता है, तो देश के लिए कैसे लाभकारी सिद्ध होगा,अपने परिवार को भौतिक लाभ दे पायेगा?अतः शिक्षा रोजगार उन्मुख होना अत्यंत आवश्यक है। शिक्षा का एक सामाजिक उद्देश्य भी होता है की जनता में व्यव्हार कुशलता आये ,उनमे नैतिक मूल्यों का समावेश हो।परन्तु हमारी शिक्षा प्रणाली में नैतिक शिक्षा का नितांत अभाव है।विद्यालयों और महा विद्यालयों में व्याप्त उछ्रंख्लता ,अनुशासन हीनता इसका प्रमाण है।अतःपाठ्यक्रम निर्धारण में नैतिक शिक्षा पर विशेष महत्त्व देना परम आवश्यक है। हमारा शिक्षा तंत्र बच्चों को उनके जीवन से सम्बंधित ,अर्थात स्वास्थ्य परक ज्ञान से वंचित रखता है।जबकि बच्चे को स्वास्थ्य परक जानकारी देना, उसके शिक्षा प्राप्त करने का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।यदि उसे अपने शरीर के अंगो की पर्याप्त जानकारी होगी ,शरीर के रोगों के कारणों एवं निदान की जानकारी होगी तो वह अपने जीवन को स्वास्थ्य बना सकेगा।रोगी शरीर न तो स्वयं सुखी रह सकता है, न ही परिवार ,देश और समाज के लिए योगदान दे सकता है,बल्कि चिकित्सा खर्च का बोझ ढोना पड़ेगा। यह कटु सत्य है स्वस्थ्य जनता ही स्वस्थ्य विकास कर पाने में सक्षम हो सकती है।जीवन को प्रसन्नता दायक बनाने के लिए व्यक्ति का स्वस्थ्य होना अति आवश्यक है। वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हो चुका है की सिर्फ पाँच प्रतिशत लोग असामान्य मानसिक क्षमता के स्वामी होते हैं।और पचास पर्तिशत लोग सामान्य क्षमता के मालिक होते हैं।शेष व्यक्ति अपेक्षाकृत कम योग्यता वाले होते हैं।हमारी शिक्षा पद्धति में बच्चे के मानसिक स्तर के आंकलन करने का कोई प्राविधान नहीं है।प्रत्येक अभिभावक बच्चे की योग्यता,रूचि, क्षमताओं को जाने बिना अपनी योजना के अनुसार,अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार बच्चों के शिक्षा का भविष्य तय करता है. और साधन हीन परन्तु मेधावी बच्चे को उसके मुकाम तक पहुँचने का कोई विकल्प मौजूद नहीं है।निजी शिक्षा संस्थाओं के माध्यम से धन के बल पर निकलने वाले डॉक्टर, इंजिनियर, उच्च स्तर के सफल नागरिक साबित नहीं होते। सामाजिक समरसता के नाम पर आरक्षण के माध्यम से अयोग्य विद्यार्थियों को व्यावसायिक कालेजों में प्रवेश दे कर योग्य विद्यार्थी को पीछे धकेल दिया जाता है।पिछड़े वर्ग के बच्चों को सभी अन्य सुविधाएँ देकर प्रतिद्वंद्विता के लिए भी तो तैयार किया जा सकता है,और उन्हें समाज की मुख्य धारा में आने में सहायता दी जा सकती है,ताकि देश का विकास भी अपनी गति से होता रहे और पद दलित या पिछड़े वर्ग को उठने के अवसर भी प्राप्त होते रहें।परन्तु पिछले दरवाजे से शिक्षा या नौकरी में प्रवेश कराना देश हित में नहीं हो सकता। अक्षम व्यक्तियों को उपाधियां (डिग्रीयां)प्रदान कर देश को बेरोजगारी ,गरीबी,अराजकता को दावत देना है।यदि मेधावी व्यक्ति को उचित अवसर प्राप्त नहीं होते तो एक तरफ तो वह कुंठा ग्रस्त होता है, दूसरी तरफ देश प्रतिभाशाली व्यक्तियों की सेवाओं से वंचित हो जाता है।आज भी कपडा उद्योग, होटल, पर्यटन, हॉस्पिटैलिटी जैसे क्षेत्रों में योग्य युवको की नितांत आवश्यकता है।भेड़ चाल के वशीभूत होकर सीमित क्षेत्रों की तरफ भागना भी हमारे समाज की त्रासदी है।जैसे आज कल प्रत्येक छात्र कंप्यूटर की शिक्षा पा लेने को बेताब है।आधुनिक युग में नए क्षेत्र खुलते जा रहें है अतः परंपरागत क्षेत्रों पर भागते रहना भी हमारी शिक्षा व्यवस्था में पर्याप्त दिशा निर्देश का अभाव सिद्ध करता है। अतः मेधावी छात्रों की स्कूल स्तर पर पहचान करने के पश्चात् उनकी योग्यता, उनकी रुचियों ,उनकी व्यक्तिगत क्षमताओं के अनुसार चयनकर, आवश्यक परामर्श देकर, शिक्षण और प्रशिक्षण की व्यवस्था करके ही देश के विकास को चार चाँद लगाया जा सकता है। शिक्षा के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।हमारे देश में भरपूर प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं , यदि शिक्षा का उचित उपयोग किया जाय तो हमारे देश को विकसित देशों की श्रेणी में लाने से कोई नहीं रोक सकता। देश को फिर से सोने की चिड़िया का ख़िताब मिल सकता है। सत्य शील अग्रवाल, शास्त्री नगर मेरठ

मेरे नवीनतम लेख अब वेबसाइट WWW.JARASOCHIYE.COM पर भी उपलब्ध

हैं,साईट पर आपका स्वागत है.FROM  APRIL2016

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