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 दामाद को लेना होगा पुत्र का स्थान

jara sochiye
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परंपरागत मान्यताओं के कारण दामाद और ससुर के संबंधों में सामंजस्य का अभाव बना रहता है.क्योंकि पुरुष सत्तात्मक समाज होने के कारण महिलाओं को दोयम दर्जा दिया जाता है. यही कारण है जहाँ एक तरफ बेटे का पिता होना गौरव का आभास दिलाता है,तो पुत्री का पिता सदैव उसकी ससुराल वालों के समक्ष झुका रहता है.तथा बेटे के बराबर दामाद के सामने भी झुकने को मजबूर होना पड़ता है,कभी कभी तो अपमानित भी होना पड़ता है.दामाद और उसके पिता वर पक्ष के होने के कारण विजयी मुद्रा में देखे जाते हैं, जबकि बेटी का बाप होना  अपमान का प्रतीक बन जाता है.यही अपमान और निरंकुशता समाज में पुत्र को श्रेष्ठ और पुत्री को बोझ ठहरता है. और महिला वर्ग को समान अधिकार और सम्मान से वंचित करता है.

देश की बढती जनसँख्या को देखते हुए तथा जीवन स्तर को नित्य ऊंचा करने की होड़ के चलते समाज पर परिवार नियोजन का दबाव बढ़ रहा है.परिवार में दो बच्चों से अधिक होना  पिछड़े पन का सूचक बनता जा रहा है.क्योंकि हमारे सामाजिक संरचना और परम्पराओं के कारण पुत्री के पिता को पुत्र के अभाव में अपना भविष्य धुंधला दीखने लगता है.इसलिय परिवार में कम से कम एक पुत्र की आकांक्षा होना स्वाभाविक है.यदि किसी परिवार में एक बेटी पहले से ही है तो दूसरे बच्चे का आगमन से पूर्व अल्ट्रा साउंड टेस्ट द्वारा पता करना पड़ता है, और लड़की की सम्भावना होने पर गैर कानूनी होते हुए भी चोरी छुपे गर्भपात कराना माता पिता की मजबूरी हो जाती है.

यदि समाज में पुत्री के पिता को पुत्र के पिता के समान भरपूर सम्मान मिले ,दामाद अपने सास ससुर को अपने माता पिता का स्थान दे और परिवार में पुत्र की भांति दामाद को भी समान अधिकार प्राप्त हों जाएँ, तो पुत्र प्राप्ति की इच्छा में भ्रूण हत्या को रोका जा सकेगा ,और परिवार में पुत्र के समान ही पुत्री के आगमन पर जश्न मनाया जायेगा. माता पिता को अपनी दोनों संतान (बेटा या बेटी) से भविष्य में बराबर मान-सम्मान और संरक्षण की सम्भावना होने  पर उसे लड़के या लड़की में भेद भाव करने की  आवश्यकता नहीं रह जायेगी.

अब एक नजर उन सामाजिक परम्पराओं पर जो ससुर दामाद की मध्य दीवार खड़ी करती हैं.;

१,लड़की को पराया धन बताया जाता है.अतः बेटी को कन्यादान कर किसी अन्य व्यक्ति के  हाथों  में सौंप देना ही पिता का कर्त्तव्य माना जाता है. अर्थात बेटी का घर पराया घर माना जाता है, जो दामाद को उसकी ससुराल से अलग करता है.

२,दामाद को जमाई अर्थात जम का रूप बताया गया है और उसे यमदूत के रूप में देखा जाता है.जो दामाद से दूरी बनाये रखने को प्रेरित करता है. यह सोच दामाद को गैर परिजन और उसको आतंक का पर्याय बना देती है. अतः उससे सानिध्य बंधन कैसे संभव है.

३, शास्त्रों के अनुसार और हमारी परम्पराओं में दामाद से किसी प्रकार का शारीरिक या आर्थिक सहयोग प्राप्त करना वर्जित माना गया है.उसके घर का पानी पीना बेटी के माता पिता के लिए वर्जित माना गया है,तो उससे किस प्रकार पुत्र के समान कर्तव्यों की आशा की जा सकती है? अतः कठिन परिस्थितियों में भी बेटी के ससुराल वालों से सहायता प्राप्त करना संभव नहीं होता.जो रिश्तेदार सुख दुःख में साथ न दे सके, या उससे मदद लेने में संकोच हो तो उस रिश्तेदारी का क्या लाभ?

४,दामाद अपने सास ससुर के अंतिम संस्कार में कोई सहयोग नहीं कर सकता.उसके लिए तो सास ससुर के अंतिम दर्शन करना भी वर्जित माना जाता है.अतः दामाद चाह कर भी पुत्र बन कर कोई कर्तव्य नहीं निभा सकता .

५.बेटी को विवाह के पश्चात ससुराल भेजने की परंपरा है ,किसी भी स्थिति में दामाद का घर जमाई बन कर ससुराल वालों के साथ रहना मान्य नहीं है.

इस  प्रकार जहाँ बेटी के कर्तव्य अपनी ससुराल वालो के प्रति असीमित हैं,वहीँ बेटे के अपनी ससुराल वालों के प्रति कर्तव्यों की कोई लिस्ट नहीं होती.यदि उपरोक्त मान्यताओं में बदलाव लाया जा सके तो ससुर और दामाद के सम्बन्ध अपने आप मानवीय स्तर के हो सकते हैं.बेटी भी अपने माएके में अपने को उस परिवार की संतान का फर्ज निभा पायेगी ,समाज में पुत्र प्राप्ति की ललक को विराम लग सकेगा,वृद्धो को पुत्र न होने गम नहीं सता पायेगा .

(मेरी पुस्तक जीवन संध्या से उधृत )

सम्पूर्ण पुस्तक पढने के लिए निम्न लिखित लिंक पर जाएँ
gadyakosh.org/satyasheelagrawal

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