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वैज्ञानिक युग में बढती धार्मिकता

jara sochiye
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यह आश्चर्य का विषय है की पिछले पचास वर्षों में जितनी वैज्ञानिक प्रगति हुई है, उतनी शायद उससे पूर्व कभी नहीं हुई।परन्तु फिर भी धार्मिकता अप्रत्याशित रूप से जनता में बढती दीख रही है.वास्तविकता क्या है, यह विचारणीय विषय है।क्यों हम धर्म की अंधी गलियों में भटकने को मजबूर हो रहे हैं? क्यों जन सैलाब संतो-महात्माओं, देवी-देवताओं की शरण में जा रहा है? क्या मानव, वर्तमान विकास,जीवन की इस भाग दौड़ के इस मुकाम से अधिक दुखी हो रहा है? क्या वर्तमान विकास ने उसके मन की शांति को छीन लिया है ? क्या आज मानव को वैज्ञानिक मान्यताओं पर विश्वास नहीं रहा?

आज तिरुपति जैसे बड़े बड़े मंदिरों में करोड़ों रूपए नकदी के रूप में और भारी जेवरों का चढ़ावा नित्य आता है, वैष्णोदेवी,केदारनाथ,बद्रीनाथ आदि अनेक तीर्थ स्थानों पर यात्रियों की संख्या निरंतर बढती जा रही है.1986 में वैष्णो देवी जाने वाले यात्रियों की संख्या 14 लाख थी जबकि सन् 2009 में यह82 लाख से ऊपर हो गई। गत् तीन वर्षों में, वार्षिक संख्या निश्चित रूप से एक करोड़ पार कर गई होगी.आज इलाहबाद महाकुम्भ में स्नानार्थियों या श्रद्धालुओं की संख्या तीन करोड़ के आंकड़े को पार कर गयी है.जबकि गंगा जल के प्रदूषित होने की जानकारी सभी को है,जो वैज्ञानिक शोधों के अनुसार पीने की बात तो छोडिये छूने लायक भी स्वास्थ्यकर नहीं रहा है.परन्तु धार्मिक अन्धविश्वास ने सभी वैज्ञानिक तथ्यों को दरकिनार कर दिया है. संतो ,महात्माओं, प्रवचन कर्ताओं ,सत्संग कर्ताओं की बाढ़ सी आ गयी है।यद्यपि अनेक संतों ,बाबाओं के कारनामे,घोटाले,अत्याचार,अनाचार,नित्य उजागर हो रहे हैं. फिर भी जनता इनको अपना आदर्श मानती रही है,उसकी आस्था आज भी अडिग है।जब कोई व्यक्ति या समूह किसी ठगी का शिकार होता है,कोई तथाकथित साधू या संत फर्जी साबित होता है, तो सरकार को दोषी ठहराया जाता है।

उपरोक्त सभी उदाहरण इस बात का संकेत है की जनता में विकास के साथ साथ धार्मिक आस्था भी बढ़ रही है।यह एक आश्चर्य का विषय है बढ़ते भौतिकवाद के साथ साथ आस्था भी बढ़ रही है .आखिर क्या कारण हो सकता है,इसके पीछे ? क्या आम आदमी इस प्रगति के माहौल में भी घुटन का अनुभव कर रहा है, भौतिक वाद की भागदौड के चलते अत्यधिक तनाव ग्रस्त होता जा रहा है,या वह मानसिक रूप से अवसाद ग्रस्त होने के कारण कहीं से आत्म संतोष की तलाश करना चाहता है,जो उसे एक मानसिक शांति की तलाश में भटकने को मजबूर करता है। यही तलाश उसे धार्मिक आस्था की ओर ले जा रही है।कभी कभी विकसित देशों से आने वाले अनेक अमीर लोग भारत के धार्मिक वातावरण में शांति का अनुभव करते देखे जा सकते हैं। और वह यहाँ के किसी पंथ के अनुयायी बन जाते हैं,आखिर क्यों? एक दूसरा पहलू यह भी हो सकता है, जैसे जैसे देश में बेईमानी ,भ्रष्टाचार ,अनाचार का माहौल बढ़ रहा है, इन्सान अपने पापों(मानवता के विरुद्ध किये गए कार्य ) को माफ़ कराने के लिए इष्ट देव की आराधना की ओर अग्रसर हो रहा है,अपने तथाकथित पापों का प्रायश्चित करने के उपाय ढूंढता है.
जैसे जैसे शिक्षा का प्रचार प्रसार बढ़ रहा है इन्सान मेधावी होता जा रहा है .प्रत्येक व्यक्ति सम्मान और दौलत की तलाश में जुटा है.किसी भी विद्वान् व्यक्ति के लिए साधू या संत के धंधे में पदार्पण करना सर्वाधिक आसान लगता है. जिसके लिए कोई कक्षा पास करने की आवश्यकता नहीं होती ,किसी साक्षात्कार को झेलने की आवश्यकता नहीं होती .और शीघ ही अपार धन की प्राप्ति होती है ,सम्मान तो इतना प्राप्त होता है जो देश के प्रधान मंत्री को प्राप्त नहीं हो पाता. बल्कि अनेक नेता, अभिनेता , मंत्री, मुख्य मंत्री भी उनके चरण स्पर्श कर, उनकी कृपा दृष्टि(आशीर्वाद) की कामना करते देखे जा सकते हैं।अतः सर्वाधिक मेधावी(सम्माननीय) पद जो भारत में आई ए एस अधिकारी का होता है ,उससे कहीं अधिक प्राप्ति इस व्यवसाय में प्राप्त होती है।यही एक कारण है जो संतो महात्माओं की बाढ़ सी आ गयी है.सबसे बड़ी बात यह है की संत बनने के लिए आपको कोई निवेश नहीं करना पड़ता कोई अधिक समय उस लेवल तक पहुँचने में व्यय नहीं करना पड़ता. जबकि कोई भी इंडस्ट्री लगाने में करोड़ों रुपए खर्च करने होते है फिर अनेकों वर्ष अपनी साख बनाने और इंडस्ट्री को लाभ दायक स्थिति तक लाने में लग जाते हैं।यदि आई ए एस बनना है तो पढाई,के पश्चात् परीक्षाओं और साक्षात्कार के दौर से गुजरने में अनेक वर्ष के साथ कठिन परिश्रम करना होता है।अतः सर्वाधिक आसान कार्य है धार्मिक प्रवचन दाता बनना। सिर्फ शर्त है आप की बुद्धिमत्ता का स्तर आई ए एस के लेवल का हो,आपका शारीरिक सौष्ठव उच्च स्तर का होना चाहिए.
जनता में बढ़ने वाली धार्मिकता का कारण उन्नति के इस दौड़ में गरीब और अमीर के बीच बढ़ रही खायी भी मुख्य वजह हो सकती है।प्रत्येक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा उच्च से उच्च जीवन स्तर को पा लेने की हो रही है, जब वह अपने लक्ष्य को पाने में स्वयं को अक्षम पाता है तो अवसाद ग्रस्त हो जाता है,यही स्थिति उसे शांति की खोज के लिए मजबूर करती है,धार्मिक आस्था बढ़ने के साथ साथ बाबाओं की दुकानदारी चमकने लगती है,संतो का धंधा फलने फूलने लगता है और आज के वैज्ञानिक युग में भी धार्मिक आस्था के परचम को बुलंद करता है।सभी वैज्ञानिक मान्यताएं,वैज्ञानिक शोध महत्वहीन हो जाते हैं.
सत्य शील अग्रवाल, शास्त्री नगर मेरठ

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