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धर्म निरपेक्षता या वोट बैंक का ट्रम्प कार्ड

jara sochiye
jara sochiye
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1947 में जब हमारा देश विदेशी दासता से मुक्त हुआ, तो,देश को भारत और पाकिस्तान (हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र )विभाजन के भयानक दौर से गुजरना पड़ा.इस त्रासदी में लाखों लोगो का कत्लेआम हो गया,क्योंकि विभाजन ने नफरत और साम्प्रदायिक दंगों का रूप ले लिया था। तत्कालीन भारत के राष्ट्रिय नेताओं ने उदारता का परिचय देते हुए घोषणा की,जो भी मुसलमान भारत में ही रहना चाहते हैं वे यहीं पर रह सकते हैं.उन्हें इस देश में बिना भेद भाव के पूर्ण नागरिक सम्मान मिलेगा।उन्होंने भारत देश को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया,साथ ही घोषणा की गयी की देश की शासन व्यवस्था लोकतान्त्रिक ढंग से होगी जिसे एक संविधान के अंतर्गत संचालित किया जायेगा।सरकार के प्रतिनिधियों का चुनाव जनता द्वारा होगा।देश के कर्णधारों एवं बुद्धिजीवियों को लेकर देश के लिए संविधान की रचना की गयी.जिसके अंतर्गत देश के प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार प्रदान किये गए,उसे किसी भी धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता प्रदान की गयी,और एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के निर्माण का संकल्प लिया गया. देश के सभी नागरिकों को जन प्रतिनिधि चुनने के लिए मताधिकार प्रदान दिया गया. प्रत्येक धर्म,समुदाय को अपने धर्म को विकसित करने ,प्रसारित करने के खुले अवसर प्रदान किये गए. उनकी सभी धार्मिक गतिविधियों को निर्बाध रूप से संचालित करने की छूट प्रदान की गयी.दरअसल संविधान निर्माताओं का उद्देश्य देश को *सर्वधर्म समभाव* का सन्देश देना था,ताकि देश में एकता, समता और शांति का राज्य स्थापित किया जा सके,और जनता का कल्याण हो।
परन्तु यही धर्मनिरपेक्षता की रणनीति नेताओं के स्वार्थ में फंस कर अनेक बुराइयों को जन्म दे बैठी।सभी नेताओं ने धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या अपने स्वार्थ,अपने राजनैतिक लाभ के अनुसार परिभाषित की और धर्मनिरपेक्षता के नेक इरादे को मखौल बना कर रख दिया।परिणाम स्वरूप आज जो पार्टी या व्यक्ति बहु संख्यक समुदाय के पक्ष में बातें करता है, उसे धार्मिक कट्टरवादी या साम्प्रदायिक घोषित कर दिया जाता है. परन्तु जो अल्पसंख्यक के हितों की बातें करे वह धर्म निरपेक्षता का पक्षकार माना जाता है.एक केन्द्रीय मंत्री मुस्लिमों को आतंकवाद के गलत आरोपों में न फंसाने के लिए मुख्य मंत्रियों को पत्र लिखते है,क्या अन्य लोगों को गलत आरोपों में फंसाना न्याय संगत है? केंद्र सरकार द्वारा एक जाँच एजेंसी को मुस्लिमों की गरीबी का आंकलन करने का काम सौंपा जाता है,क्या अन्य समुदाय के लोग गरीब नहीं हैं?कोई नेता मुसलमानों में २०%आरक्षण देने की बात करता है तो कोई देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक़ बताता है , इत्यादि। इस प्रकार देश के बहु संख्यक समुदाय की घोर उपेक्षा की जा रही है और धर्मनिरपेक्षतावाद को मुस्लिम समर्थन का रूप दे दिया गया है .यद्यपि राजनेताओं ने मुस्लिमों के लिए भी कुछ नहीं किया,उन्हें सिर्फ वोट पाने का माध्यम बनाया गया.उनकी इसी मानसिकता ने दोनों सम्प्रदायों के मध्य कटुता भरने का कार्य किया और आजादी के पश्चात् अनेक बार धार्मिक दंगे हुए जो आज तक जारी हैं.क्योंकि राजनेता दोनों सम्प्रदायों को लडवा कर वोटों के ध्रुवीकरण करते रहते हैं,पीड़ितों पर अपने सहायता रुपी मरहम लगाकर अपनी राजनीति को चमकाते रहते हैं.आज अधिकतर चुनाव धर्म और जाति के आधार पर लड़े जाते हैं,आम जनता के विकास के मुद्दे,अर्थात गरीबी,भ्रष्टाचार ,कृषि उत्पादन,महंगाई,देश में जन सुरक्षा,बेरोजगारी जैसे मुद्दे चुनावी घोषणा पत्रों में पीछे रह जाते हैं.
अब देश का मुसलमान भी नेताओं की चालों को भलीभांति समझने लगा है की उन्हें गिनी पिग की भांति स्तेमाल किया जाता है.कुछ दिनों पूर्व ही जमियत उलेमा ए हिन्द के महासचिव महमूद मदनी का यह बयान मुस्लिमों की मानसिक स्थिति को उजागर करता है जिसमे उन्होंने कहा है “मैं सेक्युलर दलों से कहना चाहता हूँ की वे वायदे पूरे करने और आगे क्या करना चाहते हैं,उसकी बुनियाद पर वोट मांगे। किसी व्यक्ति का खौफ दिखा कर (नरेन्द्र मोदी,या भा ज पा पार्टी) वोट मांगने की कोशिश न करें”उनका निशाना विशेष तौर पर कांग्रेस पर था,जिसने हमेशा मुसलमानों की हमदर्द बन कर बार बार सत्ता सुख प्राप्त किया है।
आखिर संविधान की रचना करने वालों से कहाँ चूक हो गयी?यद्यपि हम सभी को संविधान निर्माताओं के प्रयासों की सराहना करनी चाहिए और उनके अहसानमंद होने चाहिए,क्योंकि उन्होंने उस समय के अनुसार जो सर्वर्श्रेष्ठ हो सकता था किया।इसी का परिणाम है की हम देश में मजबूत लोकतंत्र को देख पाए.जिसे हमारे स्वार्थी नेताओं ने उनके उद्देश्यों को दिशाहीन कर दिया। संविधान निर्माण के पश्चात् समय समय पर आवश्यकतानुसार संविधान में अनेक संशोधन किया गए,अनेक नए कानूनों का निर्माण किया गया,और अप्रासंगिक हो चुके नियमों को बदला गया. आज के हालातों को देखते समझते हुए ऐसा अनुभव किया जा सकता है की, वर्तमान दयनीय राजनैतिक स्थिति से बचा जा सकता है, यदि संविधान में कुछ निम्न लिखित संशोधन कर दिए जाएँ जो संविधान निर्माण के समय नहीं बन पाए;

१, यदि *सर्वधर्म समभाव* के स्थान पर शासन द्वारा किसी भी धर्म का समर्थन न किये जाने की निति बनाई जाय ,अर्थात राजकीय तौर पर धर्म विहीन,जाति विहीन, एवं सामाजिक समरसता के उद्देश्य से कार्य शैली अपनाने का प्रावधान किया हो तो शायद वर्तमान दिश हीन स्थिति से बचा जा सकता है. देश के सभी नागरिक हिन्दू,मुस्लिम,ईसाई या बंगाली,मद्रासी,गुजरती,बिहारी, पंजाबी न हो कर सिर्फ भारतीय ही कहलायें ,यानि कोई भी देश वासी पहले भारतीय फिर अन्य कोई धर्म या जाति या क्षेत्र।
२,किसी भी संस्था विशेष कर सरकारी संस्थान के नाम किसी धर्म से सम्बंधित न हो, जो आजादी के पश्चात् ही धर्म के आधार पर संस्थाओं के नाम परिवर्तित किया जाने चाहिए थे.जैसे अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी,बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय,इत्यादि

३,जो अधिनियम,या कानून धर्म के नाम पर थे उन्हें तत्काल निरस्त किया जाना चाहिए अथवा उनके नाम बदल कर नए नाम देने चाहिए थे,मुस्लिम पर्सनल ला-शरियत-1937 (जिसमे मुसलमानों के विवाह सम्बन्धी,जायदाद सम्बन्धी,या अन्य पारिवारिक कार्यों के लिए उन्हें प्रथक कानून से संचालित करता है),हिन्दू कोड बिल जिसमें,अविभाजित हिन्दू परिवार(आए कर के अंतर्गत), अधिनियम,हिन्दू विवाह अधिनियम1957 ,हिन्दू उत्तराधिकारी अधिनियम 1956 ,हिन्दू नाबालिग और संरक्षक अधिनियम1956,हिन्दू दत्तक संरक्षण अधिनियम 1956 शामिल हैं,इसी प्रकार से ईसाईयों के लिए अलग क्रिश्चियन मेरेज एक्ट इत्यादि बने हुए हैं।देश के सभी नागरिकों के लिए एक ही कानून की व्यवस्था होनी चाहिए,न की उसके धर्म के आधार पर,शासन की निगाह में देश का प्रत्येक नागरिक सिर्फ भारतीय होना चाहिए।

४,मिलिट्री अथवा कोई अन्य संस्थान का नामकरण धर्म सूचक ,या जाति सूचक नहीं होना चाहिए,जैसे सिक्ख रेजिमेंट,राजपूत रेजिमेंट,गोरखा रेजिमेंट इत्यादि।जाति आधारित नाम या धर्म आधारित नाम धर्मनिरपेक्षता के आचरण में बाधक बनते हैं.शासन की ओर से किसी जाति विशेष को प्रमुखता देना उसके *सर्वधर्म समभाव* के उद्देश्य से विचलित करते हैं.
५,आजादी के समय हमारे देश में अनेक जातियां हजारों वर्षों से शोषित की जा रही थीं,उन्हें समाज में कभी भी सामान अधिकार प्राप्त नहीं हुए जिनके कारण वे कभी भी आर्थिक रूप से संपन्न नहीं हो पाए और उनका समाज पिछड़ता चला गया.संविधान निर्माताओं ने उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने के लिए,अनेक रूप से आरक्षण देकर उनके उत्थान के लिए उपाय किये गए.आरक्षण की व्यवस्था मात्र दस वर्ष के लिए की गयी थी, जिसे नेताओं के स्वार्थ ने,अपने वोट बेंक को बनाये रखने के लिए आज तक भी जीवित रखे हुए है जो अन्य अनारक्षित जातियों के लिए आक्रोश का कारण बन गया है.यदि आरक्षण की व्यवस्था जाति आधारित न हो कर आर्थिक स्थिति के अनुसार होती तो शायद इस स्थिति से बचा जा सकता था,क्योंकि गरीब एवं पिछड़े लोग प्रत्येक जाति में मौजूद थे और आज भी हैं.अतः आरक्षण का आधार उसकी आर्थिक स्थिति हो न की जाति जिसमे वह पैदा हुआ है.वैसे भी आरक्षण लागू हुए एक दशक के स्थान पर अनेक दशक हो चुके हैं,अतः उसे समाप्त होना ही चाहिए।
६,देश के सभी धार्मिक स्थलों को एक कानून और एक प्राधिकरण(authority )द्वारा नियंत्रित किया जाए,संचालित किया जाए।
दरअसल आजादी के समय ही जब देश को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया था,धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या कुछ इस प्रकार से की जाती तो वर्तमान परिस्थितियां न बनतीं.हमारा देश धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र रहेगा, जिसमें सभी धर्मों को अपनी गतिविधिया करते रहने की पूरी आजादी होगी, परन्तु उससे किसी भी अन्य धर्म अनुयायी के धर्म पालन में गतिरोध को स्वीकार नहीं किया जायेगा।शासन स्तर पर किसी भी धर्म या जाति का न तो समर्थन किया जायेगा और न ही विरोध।सभी धर्म और पंथ के मानने वालों के साथ कोई भेद भाव नहीं होगा,सभी को समान रूप से रोजगार और नौकरियों के अवसर प्राप्त होंगे। शासन की नजर में कोई भी व्यक्ति उसके धर्म के आधार पर नहीं जाना जायेगा ,उसकी निगाह में सभी नागरिक भारतीय होंगे,उसी आधार पर सभी सरकारी सुविधाएँ प्राप्त होंगी।देश का कोई भी कानून किसी धर्म या जाति के लिए नहीं होगा,सारे कानून सभी भारतियों,के लिए एक सामान होंगे और सब पर सामान रूप से लागू होंगे। किसी भी जन प्रतिनिधि को किसी भी धार्मिक कार्य में सम्मिलित होने की इजाजत नहीं होगी।धर्म निरपेक्षता का अर्थ होता शासन द्वारा किसी भी धर्म को न माना जाना,अर्थात निष्क्रिय रहना और सभी धर्मावलम्बियों को उनके धार्मिक गतिविधियों को संचलित किये जाने की पूर्ण इजाजत होना।अर्थात एक जाति विहीन, धर्म विहीन शासन।

सत्य शील अग्रवाल

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