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धर्म की आड़ में पनपती सामाजिक विसंगतियां (FIRST PART)

jara sochiye
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धार्मिक कट्टरता और हिंसा

प्रस्तुत लेख के माध्यम से विभिन्न समुदायों द्वारा धर्म की आड़ में किये जा रहे हैवानियत भरे व्यवहार पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है । ताकि एक आम व्यक्ति धर्म और इंसानियत को एक साथ जोड़कर देख सके और धार्मिक कृत्यों एवं प्रचार करते समय मानवता का ध्यान रख सके और धर्मों के दुरूपयोग पर अंकुश लगाया जा सके।धार्मिक आस्था मानवता अथवा मानव मात्र को शान्तिपूर्वक जीवन जीने का सहारा देने के लिए है। यदि यह आस्था समाज को कष्टदायी साबित होने लगे तो वह आस्था अभिशाप का रूप ले लेती है। जब भी कोई धर्म अथवा धार्मिक समुदाय सिर्फ अपने धर्म अथवा आस्था को पूरी दुनिया पर थोपने का प्रयास करता है तो हिंसा का रूप ले लेता है, यह कट्टरता और अन्य धर्मों के प्रति ईर्ष्या, असहिष्णुता धार्मिक दंगों के रूप में समाज को झेलने पड़ते हैं। जिनसे सैकड़ों व्यक्ति अकाल मौत के शिकार होते हैं और हजारों व्यक्ति घायल एवं अपाहिज हो जाते हैं। इंसान धर्म के नाम पर इंसान से हैवान बनते देखा जाता है। वह जानवर का रूप ले लेता है। ऐसे धार्मिक अनुयायी से तो किसी धर्म को न मानने वाला (नास्तिक) जो ईर्ष्या और हिंसा से दूर रहता है समाज के लिए उपयोगी होता है।यदि वह अपने कार्यों को इंसानियत के दायरे में रहकर करता है वह समाज का हितैषी होता है। प्रत्येक धर्म का उद्भव समाज को व्यवस्थित और मानवता के दायरे में रखने के लिए हुआ था जिसने कालांतर में अवांछित रूप धारण कर लिया।
आज तो पूरी दुनिया में धार्मिक कट्टरता को आतंकवाद का रूप दे दिया गया है।शायद कुछ कुटिल बुद्धि लोग धर्म-मजहब का सहारा लेकर जनता को गुमराह करना चाहते हैं। उनका आहवान अपने धर्मावलंबियों से होता है कि वे अपने धर्म को पूरे विश्व में लागू करवायें, भले ही उसके लिए उन्हें हिंसा और आतंकवाद-आत्मघात का सहारा लेना पड़े। इसी आहवान के जरिये भोली-भाली जनता से समर्थन, सहयोग, उन्माद, सहानुभूति पाने में सफल होते हैं। पूरी दुनिया में आतंकवाद विभिन्न रूपों में उभर रहा है।
प्रत्येक धर्मानुयायी को यह समझना आवश्यक है कि धर्म का अस्तिव्त्व मानवता की सेवा के लिए है न कि मानव का अस्तित्व धर्म के लिएं धर्म एक आस्था है, विश्वास है, आस्था और विश्वास डंडे के जोर से उत्पन्न नहीं होता। अपनी आस्था, विचारों, इच्छाओं को किसी अन्य व्यक्ति अथवा समाज पर थोपने का अधिकार किसी को नहीं हो सकता।
प्रत्येक धर्म के अनुयायी को अपने प्रचार प्रसार करने, उसके लाभों से किसी को प्रेरित करना, वांछनीय है। परन्तु अपने धर्म के प्रचार को जेहाद अथवा आतंकवाद का रूप देकर पूरी दुनिया अपनी मुट्ठी में करने का इरादा रखना धर्म विरूद्ध है। इंसानियत के विरूद्ध है। ऐसा व्यक्ति अथवा समुदाय मानवता का दुश्मन है। आतंकवादी धार्मिक व्यक्ति नहीं बल्कि हैवानियत का पर्याय है। वह न स्वयं जीना चाहता है और न ही अन्य को जीने देता है। क्योंकि उसे भ्रम है कि धर्म के लिए मरने वाला जन्नत का भागीदार बनता है। उसकी यही कट्टरता उसे हिंसक बना देती है।
अब प्रश्न उठता है की क्या आतंकवाद को मिटाने का कोई ठोस उपाय भी संभव है अथवा मानवता यूँ ही सिसकती रहेगी?
आतंकवाद को समाप्त किया जा सकता है उसके मुख्य रूप से दो उपाय हैं।प्रथम पूरी दुनिया में असमानता न्यूनतम स्तर पर लायी जाए अर्थात गरीब और अमीर के बीच जीवन स्तर में न्यूनतम स्तर पर अंतर हो,असमानता कम होने से संसार से गरीबी, विपन्नता, अभाव समाप्त हो सकता है.जब सभी लोग संपन्न होंगे ,अर्थात जब सबके मकान शीशे के होंगे (सुविधा संपन्न) तो कोई दूसरे के मकान पर पत्थर नहीं मारेगा। आतंकवाद को बढ़ाने में गरीबी, अभाव का बहुत बड़ा हाथ होता है। गरीबी-अमीरी का अंतर कम करने के लिए विश्व के समस्त देशों का विकास समान रूप से होना आवश्यक है। प्रत्येक मानव को मानव द्वारा विकसित वैज्ञानिक उपलब्धियों का लाभ मिलना चाहिये। बेरोजगारी, अभाव, अशिक्षा से मुक्ति मिलनी चाहिये। द्वितीय उपाय जो शीघ्र अपना प्रभाव दिखा सकता है और तुरंत संभव हो सकता है वह है विश्व के प्रत्येक देश के शासनाध्यक्षों की इच्छा शक्ति मजबूत एवं मानवता के प्रति ईमानदार हो। विश्व के प्रत्येक धर्म के धर्माधिकारी सार्वजनिक रूप से आतंकवाद की भर्त्सना करें और प्रत्येक आतंकवादी संगठन को धर्म से बेदखल करने का संकल्प लें, उनको समर्थन देने वाले व्यक्तियों, संस्थाओं को चिन्हित कर उनका बहिष्कार करें। प्रत्येक देश की अपनी सुरक्षा व्यवस्था मजबूत हो, सुरक्षा तन्त्र सक्षम हो।धर्माधिकारियों पर पर्याप्त दबाव बनाया जाये। उक्त उपाय से शीघ्र ही स्वस्थ परिणाम आ सकते हैं और पूरी दुनिया सुख शान्ति से विकास पथ पर अग्रसर हो सकती है। सुख शान्ति से विकास स्वतः ही प्रथम उपाय के रूप में परिवर्तित हो सकता है और समृद्धि का परचम लहरा सकता है।
धार्मिक कट्टरता जो हिंसा का रूप लेती है वह भी शिक्षा का अभाव और देशप्रेम की कमी के कारण होती है जो आतंकवाद तक परिवर्तित हो जाती है।आतंकवाद को फल-फूलने में अनेक कारक सहयोग करते हैं, उनमें उनमे भ्रष्टाचार,गरीबी,देशभक्ति का अभाव, नेताओं की कमजोर इच्छाशक्ति, आम जनता की उदासीनता प्रमुख है।

धर्म के सहारे राजनीति

हमारे देश में जनता के द्वारा चुनी गयी सरकार ही कार्य करती हैं गणतंत्र देश में कोई भी व्यक्ति ( नेता) वोटों के माध्यम से सत्ता पा सकता है। अतः प्रत्येक सत्ताधारी अथवा विपक्षी नेता का भविष्य जनता के मत पर निर्भर होता है। हमारे देश के नेता विकास के मुद्दे से हटकर धर्म के द्वारा भ्रमित कर जनता से वोट अपने पक्ष में करने के प्रयास करते रहे हैं और इस माध्यम से वोट अपने हक में करने के लिए विभिन्न हथकण्डे अपनाते हैं। वे धर्म के सहारे लोगों की भावनाओं को भड़काते हैं और धार्मिक दंगे करवाते हैं, तत्पश्चात पीड़ितों के प्रति सहानुभूति का मरहम लगाकर अपना वोट बैंक मजबूत करते हैं। इस प्रकार राजनेता धर्म के नाम पर, जातिवाद को बढ़ावा देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहते हैं और देश व जनता का अनर्थ करते हैं।
सिर्फ धर्म के सहारे कोई देश, समाज उन्नति नहीं कर सकता। यदि देश को उन्नति के शिखर पर ले जाना है तो सिर्फ विकास, अध्यवसाय, लगन से ही सम्भव है। जनता को बुनियादी सुविधाएं सिर्फ विकास के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती हैं। धर्म के नाम पर चुनी सकार कर्त्तव्यहीन ही होगी। खाड़ी के देश जिन्होंने भी धर्मों के प्रति उदारता दिखाई, सभी धर्मों का सम्मान किया, विकास के बीच में धर्म को आड़े नहीं आने दिया, विश्व मंच पर विकसित देशों के श्रेणी में शामिल हो गये। ऐसा भी नहीं है कि वे अपने धर्म को भूल गये अथवा धर्मविहीन हो गये परन्तु अपने धर्म में विश्वास करते हुए, अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता, भाईचारा दिखाया जो उन्हें ऊँचाइयों पर ले जा सका।
उपरोक्त उदाहरण सिद्ध करता है कि धर्म और राजनीति एक साथ नहीं की जा सकती। धर्म का उपयोग व्यक्ति के अपने आचरण तक सीमित होना चाहिये। शासन अथवा सत्ताधारी व्यक्ति धर्म के सहारे देश का विकास नहीं कर सकता।

महिलाओं का शोषण

यह बात सत्य है कि प्रारम्भ में धर्म ही मानव नियन्त्रण का माध्यम था। शायद विकास के अभाव में उस समय आज के आधुनिक समाज (उन्नत समाज) की आवश्यकताओं के अनुसार नहीं सोचा गया। इसीलिए बहुत सी रीतियाँ, रिवाज आज असंगत-अप्रासंगिक लगते हैं। कुछ रिवाज समय के साथ-साथ अपभ्रंश हो गये। उचित अर्थ को दिग्भ्रमित कर अनर्थ कर दिया गया।
वर्तमान सन्दर्भ में यह उचित होगा की हम सभी रीति रिवाजों को वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप विश्लेषण कर निभायें। लकीर के फकीर न बनकर धर्म में बतायी गयी अप्रासंगिक बातों को परिवर्तित रूप में अपनाया जाये तो समाज की उन्नति में धर्म बाधक नहीं बन पायेंगे।
धर्म के ठेकेदारों ने आदिकाल से ही महिलाओं का शोषण किया।पुरुष प्रधान समाज की रचना कर नारी को दोयम दर्जे का नागरिक बना कर रख दिया, जो आज तक जारी है। महिला की सारी खुशियाँ,भावनाएं,इच्छाएं पुरुष समाज को संतुष्ट करने तक सीमित कर दिया गया। पति को परमेश्वर बताकर महिला के अस्तित्व को धर्मानुसार गुलामी देदी गयी। कभी-कभी तो ग्रन्थों में नारी को नरक का द्वार भी कहा गया। उसको शिक्षा पाने के अधिकार से वंचित किया गया। पति के मरने के पश्चात पत्नी को सती होना धर्म माना गया। पति के लिए अनेक विवाह करने में आपत्ति नहीं थी परन्तु नारी के लिए अन्य पुरुष के लिए सोचना पाप था। पति को तलाक देने का अधिकार दिया गया परन्तु पत्नी ऐसा नहीं कर सकती जब तक पति न चाहे। पत्नी के लिए अपने ससुराल वालों की सेवा करना उसका धर्म माना गया चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हों, परन्तु पति के लिए अपने ससुराल वालों से सम्मानजनक व्यवहार भी आवश्यक नहीं माना गया। प्रत्येक धार्मिक संस्कार पूजा पाठ, इबादत में पुरुष की पहल को आवश्यक माना गया अर्थात पहले पूजा पुरुष करेगा तत्पश्चात महिला।
यद्यपि आज सती प्रथा नहीं रही परन्तु विधवा को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार आज भी नहीं है, वह दूसरा विवाह नहीं कर सकती। अनेक स्थानों पर आज भी बाल विवाह मौजूद हैं। कच्ची उम्र में मां बनना, बच्चे और उसकी मां दोनों के स्वास्थ्य एवं जान का खतरा बना रहता है। आज भी नारी को विषय वस्तु ही माना जाता है। महिलाओं को शिक्षा का अधिकार,और हर क्षेत्र में कार्य करने का अधिकार मिल गया है, परन्तु वेतनमान में पुरुष से भेदभाव आज भी मौजूद हैं। प्रत्येक परिवार में लड़का होने की खुशी होती है और लड़की होने पर अपना दुर्भाग्य माना जाता है। लड़की का अंदेशा होने पर आज भी अबोर्शन करा दिया जाता है। कहीं-कहीं तो लड़की होने पर उसे जीने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। नारी के शोषण का कारण धर्म की परम्परा को माना जाता है। अतः विभिन्न धर्मों ने नारी के साथ अन्याय ही किया है।
मुस्लिम समाज में तो नारी की स्थिति बहुत अधिक खराब है, उन्हें आज भी अक्सर अनेक अधिकारों से वंचित रखा जाता है। उन्हें बुरके में रहने को मजबूर किया जाता है।यदि कोई महिला अपने प्रयासों से देश का नाम भी ऊँचा कर दे तो भी उसके पहनावे को लेकर टिप्पणी कर दी जाती है।बिना यह सोचे समझे कि धार्मिक पहनावे के साथ उक्त उच्च स्तर तक पहुंचना भी संभव नहीं था। इस समाज में पुरुष को पांच विवाह करने की धर्मानुसार(शरीयत के अनुसार) छूट दी हुई है। जबकि नारी के लिए अवांछनीय परिस्थितियों में भी तलाक लेने की इजाजत नहीं है। अफगानिस्तान में तो तालिबानी धर्म के नाम पर नारी समाज को सोलहवीं शताब्दी में जीने को मजबूर कर रहे हैं। उन्हें पढ़ने-लिखने, बाजार घूमने अथवा सार्वजनिक स्थानों पर कार्य करना वर्जित कर रखा है। नारी को घर के पालतू जानवर एवं बच्चे पैदा करने की मशीन बनाकर रख दिया है।यद्यपि अमेरिका के हस्तक्षेप से अफगानिस्तान के समाज में परिवर्तन आ रहा है परन्तु तालिबान ने पाकिस्तान में अपने पांव पसारने प्रारम्भ कर दिये हैं।
यद्यपि आज हमारे देश में विभिन्न नारी आंदोलनों और नारी के हितों में बनाये गए कानूनों के रहते नारी समाज में काफी जाग्रति आयी है,और नारी समाज उन्नति और सम्मान पाने की ओर अग्रसर है फिर भी अभी बहुत सुधार की आवश्यकता है
(शीघ्र ही इस ब्लॉग का अगला पार्ट पढ़ पाएंगे-धन्यवाद )

मेरे नवीनतम लेख अब वेबसाइट WWW.JARASOCHIYE.COM पर भी उपलब्ध

हैं,साईट पर आपका स्वागत है.FROM  APRIL2016

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