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जातिवाद धार्मिक देन
जातिवाद को समाज के पतन का जिम्मेदार माना जाए तो गलत न होगा प्रत्येक धर्म के धर्माधिकारियों ने अपने धार्मिक अनुयायियों को विभिन्न उपजातियों में विभाजित किया गया और उनके कार्य नियत किये गये,अर्थात प्रत्येक जाति के कार्य प्रथक प्रथक नियत किये गए। परन्तु हिन्दू धर्म में विशेषकर पण्डितों ने अर्थात ब्राह्मणों ने पूरे हिन्दू समाज को चार मुख्य जातियों में विभक्त किया। क्योंकि धर्म ग्रन्थों के सृजक एवं समाज की धार्मिक व्यवस्थापक ब्राह्मण ही थे। अतः सारे नियम अपनी जाति, ब्राह्मण जाति के पक्ष में बनाये। उन्हें धर्मदूत, ईश्वर का आंशिक स्वरूप बताकर बाकी समाज के लिए उसका आदर सम्मान, सेवा इष्ट देव को प्रसन्न करने का माध्यम बताया गया। अतः पूरे समाज के संचालक के रूप में उभरे। किसी परिवार में जीवन, मृत्यु, विवाह, अन्य संस्कार कुछ भी हो पंडितों को भेंट दिये बिना सम्पन्न नहीं होते। अन्यथा अनिष्ट की आशंका का भय बना रहता है। यहां तक कि किसी परिवार में कोई विपदा आई है तो ब्राह्मण को दान देकर विपदा से पार पाने की सम्भावना रहती है। यदि कोई शुभ कार्य, बड़ी खरीददारी,(जैसे कार, बंगला, स्कूटर ,इत्यादि) किसी परिवार में हुई है तो बिना दक्षिणा के परिवार द्वारा उसका उपयोग करना, शुभ अवसर में प्रसन्नचित्त होना, वांछनीय नहीं है।
यह तो हुई ब्राह्मण वर्ग के अपने धर्म की स्थापना की कीमत वसूली की बात। इसके अतिरिक्त वर्ग थे वैश्य, क्षत्रीय शुद्र। वैश्य को व्यापार का भार सौंपा गया तो क्षत्रीय को वीरता का प्रतीक बताकर सैन्य कार्य एवं खेती कार्य सौंपे गये। परन्तु चतुर्थ वर्ग था शुद्र ,जिन्हें सभी जातियों का सेवक बना दिया गया। उन्हें चर्मकार, सेवाकार के रूप में हजारा वर्षों तक प्रताड़ित किया जाता रहा। समय-समय पर तथाकथित उच्च जातियों ने उनका शोषण किया, उन पर अत्याचार किये उन्हें मामूली श्रम मूल्य पर कार्य करने को मजबूर किया गया,अर्थात क्षूद्र को अन्य कथाकथित उच्च जातियों का गुलाम बना दिया गया,जिस कारण यह जाति पिछड़ती चली गयी।हजारों वर्षों अत्यन्त मेहनत के बावजूद गरीबी की रेखा से ऊपर न उठ सकी।अज्ञानता के कारण विभिन्न प्रकार के नशे, जुआ आदि जैसी बुराईयों से ग्रस्त हो गये जिससे हिन्दू समाज विभक्त होकर रह गया। शुद्रों ने अपनी हिन्दू जाति में अपमान के कारण अन्य धर्मों में परिवर्तित हो गये जिनमें मुसलमान, ईसाई, बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने के अनेक उदाहरण सामने आये। अब स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात हमारे संविधान निर्माताओं ने सबको बराबर के अधिकार दे दिये और पिछड़े वर्ग को विभिन्न आरक्षणों और मदद द्वारा उठाने का प्रयास किया जिसने इस वर्ग के दिन लाभकारी बनाये। अनेक कानूनों द्वारा इन पर हो रहे अत्याचारों को समाप्त किया। इस प्रकार विभक्त हो रहे हिन्दू समाज को एकजुट करने का प्रयास किया गया है। समाज में असमानता का बीज बोकर कोई भी धर्म अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकता।
धर्मान्तरण और हिंसा
हिन्दू धर्म को छोड़कर लगभग सभी धर्मों ने साम दाम दण्ड भेद अपनाकर अन्य धर्म के अनुयायियों के धर्म परिवर्तन के लिए वातावरण तैयार किया जाता है । जिनमें अनेकों बार अत्याचार का भी सहारा लिया जाता रहा है।
सर्वप्रथम ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार को समझते हैं। उसके इतिहास पर प्रकाश डालें तो ज्ञात होता है इस धर्म के प्रचार प्रसार की कहानी उसके उद्भव काल से ही विद्यमान रही है। ब्रिटेन को ईसाई धर्म का मुख्य केन्द्र माना जाता है और ब्रिटेन का शासन बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक दुनिया के चौथाई भाग में विस्तृत था। दुनिया के प्रत्येक भाग पर कहीं न कहीं ब्रिटिश साम्राज्य था इसीलिए यह कहावत प्रसिद्ध थी ‘‘ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्य नहीं डूबता’। पूरे विश्व पर अपना प्रभुत्व जमाने का मुख्य उद्देश्य भौतिक उपलब्धि के अतिरिक्त अपने ईसाई समाज की मिशनरियों की स्थापना और प्रचार प्रसार कर धर्मान्तरण करना भी था। विभिन्न प्रलोभन, सुविधायें देकर अथवा दबाव बनाकर धर्म परिवर्तन करना उनका मुख्य उद्देश्य रहा है जो आज भी जारी है। आज भी ईसाई मिशनरियों को दुनिया में सर्वाधिक धन उपलब्ध होता है। यदि सुविधाएं उपलब्ध कराकर किसी को धर्म परिवर्तन के लिए प्रोत्साहित किया जाये तो कुछ हद तक न्यायसंगत माना जा सकता है परन्तु दबाव बनाकर अत्याचार द्वारा अथवा गरीबी की मजबूरी का फायदा उठाकर धर्म परिवर्तन करना अनुचित है। 1977 से 97 के बीच बी.एस. नागपाल ने ईरान, मलेशिया, इंडोनेशिया, पाकिस्तान के लोगों की मानसिकता का प्रत्यक्ष रूप से अध्ययन किया और पाया सभी मतान्तरित लोग अपनी संस्कृति, इतिहास, पूर्वजों से दूर होकर विभिन्न मनोरोगों से ग्रस्त हो गये। यह अध्ययन स्वयं सिद्ध करता है। मजबूरीवश मतान्तरण करने से उनकी मानसिकता में बदलाव नहीं आता। ईसाई मिशनरियां अक्सर मजबूर लोगों को सहायता के नाम पर धर्म परिवर्तन के लिए प्रोत्साहित करती हैं। किसी आपदा के समय उनका सेवाभाव धर्मान्तरण के उद्देश्य की पूर्ति के लिए जागृत होता है। यही कारण है हिन्दू समाज से ईसाई बनने वालों की अधिकतम संख्या पददलित, पिछड़े एवं गरीबील रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों की होती है।गांधी जी के अछूत विरोधी आन्दोलन का विरोध ईसाई मिशनरियों एवं ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा किया गया क्योंकि इससे उन्हें अपने शिकार मिलने की सम्भावना घटती नजर आ रही थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी ईसाई मिशनरियों ने यथासम्भव अपना कार्य जारी रखा। पिछले ही दिनों स्वामी लक्ष्मणानन्द की हत्या ईसाइयों की अवांछित गतिविधियों को परिलक्षित करते हैं। स्वामी लक्ष्मणानन्द धर्मान्तरण के खिलाफ थे। अपने व्यवधान को हटाने के लिए उनकी हत्या कर दी जिसने बाद में धार्मिक उन्माद का रूप लेकर अनेक अन्य मौतों का कारण बना दिया। उड़ीसा की कंध जाति पिछले सैकड़ों वर्षों से ईसाईयों के अत्याचारों को सहती आयी है। मानसिक दुर्बलता अशिक्षा, गरीबी, अनुभवहीनता उन्हें धर्मान्तरण का शिकार बनाती रही है। धर्मान्तरण के नाम पर हिंसा का सहारा लेना मानवता पर कुठाराघात है। लालच एवं दबाव से किया गया धर्मान्तरण मानव की अन्तरात्मा और उसके विश्वास को नहीं बदल सकता।
द्वितीय चरण में मुस्लिम धर्म पर अध्ययन करते हुए हम पाते हैं कि इस धर्म के अनुयायी सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम धर्म को ही मान्यता देते हैं और पूरे विश्व में मुस्लिम धर्म को ही देखना चाहते हैं। उनके अनुसार विश्व में कोई भी व्यक्ति मुस्लिम नहीं है तो काफिर है। अर्थात अन्य धर्म के प्रति सहिष्णुता का भाव उन्हें मान्य नहीं है।यही धार्मिक कट्टरता उन्हें मुस्लिम और गैर मुस्लिम की जंग के लिए प्रेरित करती है, हिंसक बनाती है और जेहाद का रूप लेकर पूरे विश्व को हिंसा और आतंकवाद की अंधेरी गली में धकेलती है। धार्मिक पुरोहित आम जनता को गुमराह कर आतंकवादी बनाकर अधार्मिक कार्य करते हैं और पूरे मुस्लिम समुदाय को कलंकित कर रहे हैं। उनकी छवि विश्व पटल पर सन्देहास्पद बना दी है। आज जिन खाड़ी के मुस्लिम देशों ने धर्म के प्रति उदारता दिखायी, विकसित होकर विश्व पटल पर सम्मानजनक स्थिति पा ली है। यह एक अच्छा उदाहरण है कि धार्मिक उदारता ही मानव, विकास पथ पर बढ़ सकता है। हिंसा से किसी को लाभ नहीं मिलता। अपने धर्म की विशेषताएं दिखाकर किसी को धर्म परिवर्तन के लिए प्रोत्साहित करना ही अपने धर्म के प्रति वफादारी मानी जा सकती है।
तृतीय चरण में हम हिन्दू धर्म पर दृष्टिपात करेंगे। हिन्दू धर्म सिर्फ धर्म न होकर जीवन शैली का नाम है जो पूरे विश्व में सर्वाधिक उदारता के लिए प्रसिद्ध है। इसकी उदार संस्कृति को अक्सर इसकी कमजोरी मान ली जाती है। इसी उदारता का ही दंश इसने हजारों वर्षों तक मुस्लिम और ईसाईयों की गुलामी के रूप में झेला है। सत्ताधारियों ने समय-समय पर हिन्दूओं पर मतान्तरण के लिए दबाव बनाया और सफलता पायी। आज करोड़ों मुसलमान और ईसाई भारतीय कभी हिन्दू ही थे जिन्हें धर्म परिवर्तक के लिए दबाव बनाया गया अथवा प्रेरित किया गया, लालच दिया गया। हिन्दू धर्म के अनुयायियों ने कभी मतान्तरण के लिए किसी को न तो प्रेरित किया और न ही हिंसा द्वारा अपने धर्म का विकास किया। बल्कि उन्होंने सभी धर्मों का सम्मान किया। उनके प्रति सहिष्णुता दिखाई। इतिहास साक्षी है इस धर्म ने ‘सर्व धर्म सम्भाव’ का व्यवहार अपनाया। अहिंसा-उदारता इस धर्म की विशेषता रही है। इसी कारण ‘बौद्ध धर्म’ अर्थात हिंसा के खिलाफ प्रचार पूरे विश्व में अनुकरणीय बन गया। अहिंसा की विशेषता के कारण ही पूरे विश्व में सिर्फ उत्तर भारत के इलाकों में शाकाहारी व्यक्ति मिलते हैं। अतः हिन्दू धर्म को मतान्तरण और हिंसा से मुक्त कहा जाये तो बिल्कुल गलत न होगा।
चतुर्थ श्रेणी में विश्वव्यापी अनेक धर्मों में अनेक जातियां भी होती है जिनकी मान्यताएं अलग अलग होती हैं जो उनकी आपसी कलह का कारण बनती है.प्रत्येक धर्म में आपसी कलह भी हिंसा का रूप लेती रही है। जैसे मुस्लिम में शिया-सुन्नी, ईसाईयों में यहूदी-ज्यूश, विभिन्न कबीलों के रूप में संघर्ष भी विभिन्न मतों के द्वारा प्रेरित हिंसा ही है। सिंहली और तमिल संघर्ष भी अपने वर्चस्व की जंग है। प्रत्येक धर्म, जाति, विचारधारा अन्य देशों, धर्मों विचारधारा पर हावी होने के लिए हिंसा का सहारा लेते रहते हैं. आज का आतंकवाद भी पूरे विश्व को अपने धर्म में परिवर्तित करने के लिए दबाव बनाने का माध्यम बना हुआ है। सारी फसाद की जड़ विभिन्न धर्मों द्वारा यह मान लिया जाना है कि अपने धर्म का प्रचार प्रसार करना भी अपने धर्म की सेवा करना है। यदि इसको सिर्फ मानव सेवा के लिए प्रेरणा वस्तु माना जाता तो मानव हिंसा का शिकार होने से बच जाता।
(अगला और अंतिम पार्ट शीघ्र ही प्रकशित किया जायेगा )
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