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लिंगभेद से मुक्ति का विकल्प

jara sochiye
jara sochiye
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युगों युगों से पुरुष प्रधान समाज में नारी अपने बर्चस्व की लड़ाई लड़ती आ रही है.जो आज के आधुनिक युग में भी जारी है.अपने देश में आजादी के पश्चात् महिला के हितों कि रक्षा के लिए अनेक महिला संगठन अस्तित्व में आये, जिन्होंने समय समय पर महिलाओं के कल्याण के लिए, उन्हें पुरुषों के समान अधिकार दिलाने के लिए, उन्हें शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए अनेक आंदोलन किये और सरकार पर दबाव बनाया, ताकि वह महिला के हितों की रक्षा के लिए व्यापक कानून बनाये। जिसके परिणाम स्वरूप अनेक कानून भी बने,जैसे दहेज़ निरोध कानून 1961 ,हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, बाल विवाह प्रतिरोध अधिनियम 1952, सामान पारिश्रमिक अधिनियम 1976, घरेलु हिंसा अधिनियम 2005, इत्यादि, जिनसे महिला वर्ग को राहत भी मिली, महिला हितों के लिए किये गए प्रयासों का प्रभाव वर्त्तमान भारतीय समाज में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. परन्तु महिला वर्ग अभी भी पूरी तरह से शोषण और भेदभाव से मुक्त नहीं हो पाया। पुरुष वर्ग कि मानसिकता अभी भी नारी को दोयम स्थान पर देखने की बनी हुई है. पुरुष वर्ग को अपने विशेष दर्जे को त्यागना असह्य लग रहा है और महिला वर्ग का अपने अस्तित्व लिए संघर्ष आज भी जारी है.
सरकार द्वारा कानून बनने के बाद भी समस्याओं का वास्तविक उन्मूलन जन चेतना के अभाव में अधूरा ही रहता है.अतः यदि महिलाओं को अपने लिए समाज में सम्मान का हक़ पाना है,पुरुषों के समान अधिकार चाहिए, उसे हर क्षेत्र में होने वाले शोषण से मुक्त होना है, तो
उसे संगठित होकर,सभी महिलाओं को जागरूक करना होगा और अपने अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष करना होगा। कानून तो सिर्फ उसे आगे बढ़ने के लिए सहारा बन सकते हैं,परन्तु जब तक वह अपने अधिकारों कि रक्षा के लिए स्वयं आगे नहीं आयेगी,अपने आत्मविश्वास को जाग्रत नहीं करेगी,कानून का सहारा पाने के लिए अपील नहीं करेगी कानून भी उसके लिए कुछ नहीं कर सकेगा।
किसी परिवार में कन्या का जन्म लेना आज भी अभिशाप समझा जाता है.कारण हमारी सामाजिक मान्यताएं हैं ,जिनके अंतर्गत बेटी के पिता को उसकी ससुराल वालों के समक्ष एक अपराधी कि भांति झुकने को मजबूर होना पड़ता है. जैसे उसने बेटी को जन्म देकर कोई अपराध कर दिया हो.उसे अपनी बेटी की खुशियों कि खातिर उसके ससुराल वालों से निरंतर अपमानित होना पड़ता है.यही वजह बनती है,जो माता पिता को बालिका की भ्रूण हत्या के लिए प्रेरित करती है,और बेटी के पैदा होने के पश्चात् परिवार में ख़ुशी नहीं गम का माहौल हो जाता है.
इसी प्रकार महिला जब विवाह के पश्चात् अपनी ससुराल पहुँचती है तो उसे ससुराल वालों की संगत असंगत बातों को मानने को मजबूर होना पड़ता है.उसके लिए पति को परमेश्वर मान कर उसकी सभी इच्छाओं को पूर्ण किया जाना उसकी मजबूरी होती है.परन्तु किसी महिला के साथ सात फेरे लेने से पुरुष के लिए परमेश्वर बन जाना, पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था के चलते ही सम्भव है.कोई भी पुरुष अपनी पत्नी की नजरों में परमेश्वर अर्थात अति महत्वपूर्ण व्यक्ति तभी बन सकता है,जब उसका व्यव्हार अपनी पत्नी के प्रति न्यायसंगत और सद्भावना पूर्ण और मानवीय हो. महज शादी हो जाने के कारण कोई भी नारी अपने पति के समक्ष अपनी इच्छाओं अपनी भावनाओ को गिरवी रख दे, यह सरासर अन्याय है.समाज के आधे भाग अर्थात महिला वर्ग को गुलाम बनाकर रखने से मानव समाज की समग्र उन्नति सम्भव नहीं है.
यद्यपि पूरे विश्व में महिलाओं का शोषण होता रहा है,उसे समानता के अधिकार नहीं मिले,परन्तु हमारे देश मे परम्पराओं और संस्कारों की दुहाई देते हुए कुछ अधिक निरंकुशता अपनायी जाती है. जो महिला की स्वतंत्रता पर निरंतर आघात करती है.सबसे दुखद बात यह है समाज के पढ़े लिखे व्यक्ति भी निरंकुश व्यव्हार अपनाते हुए अप्रासंगिक परंपराओं और संस्कारों को आगे बढ़ाते हैं.अच्छे पढ़े लिखे व्यक्ति भी अपनी पत्नी के मायके वालों से असहज व्यव्हार करते हैं,उन्हें अपमानित करते हैं, उनसे समय समय पर दहेज़ की मांगे रखते हैं,अपने स्वार्थ की पूर्ती के आभाव में अपनी पत्नी को अपमानित करते है उन पर तानाकशी करते हैं. यदि कोई महिला अपने कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ रही होती है तो भी पति को अपमान जनक लगता है.अर्थात नारी का अधिक योग्य होना या सफल होना भी उसके लिए अभिशाप बन जाता है.
कामकाजी महिला को अपने कार्यक्षेत्र के अतिरिक्त घर की सारी जिम्मेदारियां भी उठानी पड़ती हैं,अपने कार्यक्षेत्र में भी अनेक बार साथी पुरुष कर्मियों के शोषण का शिकार होना पड़ता है.अतः महिला का आत्म निर्भर होना भी उसके लिए अनेक समस्याएं पैदा करता है.परन्तु फिर भी उसे शोषण से मुक्त होने के लिए आत्मनिर्भर होना आवश्यक होता जा रहा है.क्योंकि जब वह सिर्फ ग्रहणी होती है तो उसके शोषण के अवसर बढ़ जाते हैं.यदि पति शराबी है,जुआरी है अत्याचारी है तो महिला के लिए उसका आत्मनिर्भर होना अत्यंत आवश्यक हो जाता है.मात्र ग्रहणी के लिए ऐसे पति से निबाहना और उससे पिंड छुड़ाना दोनों ही मुश्किल होते हैं.यदि महिला स्वयं आत्मनिर्भर है या आत्मनिर्भर होने कि योग्यता रखती है तो असामान्य परिस्थितियों में भी अपने जीवन चर्या को सम्मान के साथ चला सकती है.और अवांछनीय परिस्थितियों से मुक्ति पा सकती है.
अक्सर देखने में आता है कि महिला स्वयं किसी अन्य महिला द्वारा ही अधिक प्रताड़ित होती है,चाहे वह सास के रूप में हो या ननद के रूप में या फिर जिठानी के रूप में,सभी परम्पराओं कि दुहाई देते हुए अपनी जूनियर महिला पर अत्याचार करती रहती है,उसका अपमान करती है , उससे अमनवीय व्यव्हार करती है. “जैसा अशालीन व्यव्हार मेरे साथ हुआ था,जैसा व्यवहार मेरी सास ने मेरे साथ किया, वैसा ही व्यव्हार मैं भी करुँगी, तभी मुझे आत्मसंतोष होगा और मेरे साथ किये गए अत्याचारों का बदला पूरा होगा।” उसे यह सोच बदलनी होगी।किसी परिवार में जब कोई बेटी जन्म लेती है तब से ही उस पर अनेक प्रकार के अंकुश लगाने शुरू हो जाते हैं ,जिन्हे लागू करने में विशेष रूप से उसकी माँ ही अग्रणी भूमिका निभाती है.बात बात पर बेटी को अहसास कराया जाता है कि वह एक लड़की है और उसे मर्यादा में रहना चाहिए।उसके भाइयों को उससे अधिक महत्तता दी जाती है.उसकी इच्छानुसार उसे पढ़ाई करने कि स्वतंत्रता नहीं मिलती,घूमने फिरने कि आजादी नहीं मिलती,उसे अपनी पसंद के कपडे पहनने की छूट नहीं होती। अतः महिला को पहले अपने आप प्रत्येक महिला के बारे में उदारता पूर्वक सोचना होगा, अपने व्यव्हार में शालीनता लानी होगी,उसे प्यार और अपनापन देना होगा,विकट परिस्थितियों में उसके साथ खड़ा होना होगा।उसके पश्चात् ही महिलाओ के साथ न्याय पूर्ण व्यव्हार कि कल्पना की जा सकती है,पुरुष वर्ग से समानता के व्यव्हार कि अपेक्षा की जा सकती है.
बेटियों के अभिभावकों को अपनी बच्चियों को सिर्फ साक्षर कर देने से संतोष नहीं करना चाहिए,उसे आत्मनिर्भर बनाने योग्य शिक्षा देने कि योजना बनानी चाहिए,ताकि वह सामान्य तौर पर न सही, आड़े वक्त में अपना भरणपोषण स्वयं कर सके.और आने वाली नयी पीढ़ी को स्वयं शिक्षित कर सके अच्छे संस्कार दे सके,उचित मार्ग निर्देश दे सके, योग्य नागरिक बना सके,और समाज में सम्मान पा सके.
अभिभावकों के लिए एक महत्वपूर्ण कर्तव्य यह है कि वे अपने बच्ची में, उसकी भावी ससुराल के प्रति हव्वा न खड़ा करें,बल्कि उसे समझाएं कि विवाह पश्चात् उसके सास ससुर उसके माता पिता होते हैं और उन्हें वैसा ही सम्मान देना चाहिए, जैसा कि वह अपने माता पिता को देती है ,ननद और देवर भाई बहन के समान होते हैं अतः उसे अपने भाई बहन कि भांति ही प्यार देना चाहिए।यदि इस प्रकार का व्यव्हार वह करेगी तो उसे भी अपनत्व और प्यार मिलेगा।अपनी बच्ची में अच्छे संस्कार डालने के लिए अभिभावकों को अपने परिवार में आयी परायी बेटी से भी अपनी बेटी के समान प्यार और सम्मान देना चाहिए।उससे उनके अपने परिवार में भी शांति बनी रहेगी और बेटी भी दूसरे घर जाकर,एक अच्छा जीवन निर्वाह कर पाने कि प्रेरणा पा सकेगी।
प्रत्येक महिला को समाज के अवांछनीय तत्वों से बचने के लिए अपने शारीरिक प्रदर्शन से बचना चाहिए,उन्हें आभूषण प्रेम की परंपरा को त्यागना होगा।उसे आत्मरक्षा के लिए जुडो कराटे सीखना,अपने मानसिक संतुलन को विषम स्थिति में भी बनाये रखना, उनके आत्मविश्वास में बढ़ोतरी करेगा और कठिन परिस्थितियों में शत्रु को माकूल जबाब क्षमता विकसित की जा सकती है
असामान्य परिस्थितियों जैसे पति कि मृत्यु होने पर, या स्वयं बलात्कार कि शिकार नारी को पूरे समाज को एक जुट होकर उसे हौसला देना चाहिए न कि परम्पराओं के नाम पर उसे अपमानित किया जाए,जबकि इन परिस्थितियों के लिए वह किसी भी प्रकार से दोषी नहीं है.उसे सामान्य जीवन जीने के पूर्ण अवसर दिए जाने चाहिए।
इसके अतिरिक्त महिलाओं को अपने व्यव्हार में ,अपनी सोच में, कुछ अन्य बदलाव भी लाने होंगे जैसे ;
• प्रत्येक महिला को किसी भी अन्य महिला के संघर्ष में उसका साथ देना चाहिए,अपनी तरफ से किसी भी महिला को शोषित नहीं होने देना चाहिए चाहे उसके अपने कितने भी हित टकराते हों.
• अपने स्वार्थ के लिए किसी महिला के साथ अन्याय करना, उसे स्वयं को कमजोर करता है,किसी भी महिला के साथ हो रहे अन्याय के समय पुरुष का साथ देने के स्थान पर सिर्फ महिला का साथ देना होगा।
• दहेज़ लोभी के साथ अपनी बेटी के विवाह करने से बचना होगा।परिवार में बेटी के पैदा होने पर अफ़सोस वाली स्थिति से अपने को बचाना होगा और बच्ची को पूरे सम्मान,और प्यार के साथ पालना होगा।

अतः यदि महिला वर्ग को अपने समाज में व्याप्त अन्याय,शोषण कि स्थिति से बचना है तो उसका आत्मनिर्भर होना उसके लिए एक अच्छा विकल्प सिद्ध हो सकता है.साथ ही सम्पूर्ण महिला समाज को एक जुट होकर महिला कल्याण के लिए संघर्ष जारी रखना चाहिए।पूरे महिला समाज को शिक्षित और जागरूक करना चाहिए। (SA-132D)

{लेखक के अन्य लेख jarasochiye.com पर भी उपलब्ध कृपया विजिट करें }सत्य शील अग्रवाल

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