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क्या ईश्वरवाद काल्पनिक है ?(PART-2)

jara sochiye
jara sochiye
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“अनेकों वैज्ञानिक एवं अवैज्ञानिक तर्कों ने यह पुष्ट किया है कि

ईश्वर का अस्तित्व सिर्फ काल्पनिक है। प्रस्तुत हैं अनेक ठोस तर्क

जो ईश्वर के अस्तित्व को सन्देहास्पद बनाते हैं।”

अपनी धार्मिक मान्यता को दूसरों पर थोपने का प्रयास


धर्म कोई भी हो प्रत्येक धर्म के अस्तित्व का अर्थ है अज्ञात शक्ति के अस्तित्व में विश्वास अर्थात ईश्वर में विश्वास। प्रत्येक धर्म के अधिकारी अपने धर्म एवं आस्था को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, यह मानव स्वभाव है। परन्तु अन्य धर्मों के अस्तित्व को झुठलाना-अपमान करना उन धर्मों के प्रति असहिष्णु होना, उनकी अपनी आस्था पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देता है। अब या तो पृथक धर्म के इष्ट देव ही अलग-अलग हैं और वे अपने भक्तों की संख्या बढ़ाने का प्रयास करते हैं। अपने अनुयायियों के माध्यम से अपनी दुकानदारी बढ़ाने का प्रयास करते हैं। यदि ईश्वर एक ही है तो उसके पृथक नाम से और पृथक पूजा पद्धति से क्या फर्क पड़ता है। फिर अपने धर्म को अपनाने के लिए अन्य धर्म अनुयायियों पर दबाव डालना औचित्यहीन है। वैसे भी किसी व्यक्ति को धर्म चुनने का अधिकार नहीं मिलता वह अपने जन्म के अनुसार परिवार की धारणा को ही अपनाने को मजबूर होता है। जन्म से पूर्व उसे धर्म चुनने की स्वतन्त्रता नहीं होती।

किसी धर्माधिकारी से कोई जिज्ञासु उसकी आस्था के प्रति तर्क द्वारा विषय की जानकारी चाहता है तो वह क्रोधित होकर अपने पर हुए तार्किक हमले की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है और सामने वाले पर हावी होने की गरज से प्रश्नों की बौछार कर देता है। उसका प्रश्न होता है कभी तुमने हमारे इष्ट देव की पूजा की है? उस पर सच्चे मन से ध्यान लगाया है? जब ध्यान नहीं लगाया तो तुम धर्म की बात नहीं समझ सकते। अर्थात उसके धर्म और आस्था की जानकारी उसके अनुसार पूजा करने से ही सम्भव है। परन्तु धर्म का अपनाना तो आस्था पर ही निर्भर है। पहले धर्म अपनाया जाये फिर आस्था बनायी जाये, यह कोई तर्क नहीं हो सकता। अतः किसी व्यक्ति की जिज्ञासा शांत करने का यह तरीका उचित नहीं माना जा सकता। यदि आपके पास जिज्ञासू के तर्कों का जवाब नहीं है तो कुतर्क का सहारा लेना अनुचित है। इसी प्रकार यदि कोई धर्म अनुयायी अपने तर्कों से सामने वाले को प्रभावित कर सकता है तो ठीक है परन्तु अपनी आस्था थोपना अमानवीय कृत्य ही है। किसी धर्म का प्रचार करना धर्म की सेवा हो सकती है परन्तु अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु होना इंसानियत का अपमान है। सभी धर्म इंसान के कल्याण का माध्यम हैं, उसको सद्भाव, सुख-शांति प्रदान करने के लिए हैं। इंसान का जन्म किसी धर्म के कल्याण के लिए नहीं होता। सर्वशक्तिमान ईश्वर स्वयं धर्म के माध्यम से सद्बुद्धि देने में सक्षम माना जाना चाहिये, यदि आपकी आस्था में सत्यता मौजूद है।धार्मिक कट्टरता सारे फसादों की जड़ है। इतिहास गवाह है विश्व में अनेकों युद्ध धर्म के लिए धर्म के नाम पर लड़े गये हैं। आज का आतंकवाद भी धर्म (मुस्लिम) की आड़ लिये हुए है। जबकि मस्जिद पर हमले कर रहे आतंकवादी कैसे अपने को धर्म का रक्षक कह कर धर्म की लड़ाई की दुहाई दे सकते हैं।
पूर्वजन्मों के कर्मों का फल
प्रायः सभी धर्मों में मान्यता है इंसान इस जीवन में पुराने जन्म के कर्मों के हिसाब से सुख-दुख उठाता है। किसी व्यक्ति के साथ हो रहे कष्टों को उसके पूर्व जन्म में किये पापों का फल माना जाता है। यदि इस मान्यता को मान लिया जाये तो क्या यह उचित है, जिस सजा को हम भुगत रहे हैं हमें पता ही नहीं है, कौन-कौन से गलत कार्यों की सजा हमें मिल रही है। किसी भी सजा का उद्देश्य होता है, व्यक्ति को गलत अथवा असामाजिक कार्यों को करने से रोकना। परन्तु वह जब ही सम्भव है जब सजा याफता को यह पता हो उसे इस गलत कार्य की सजा दी जा रही है, ताकि अन्य व्यक्ति भी खौफ खाकर दुष्कार्यों से बचे। अगले जन्म में जब हम पिछले जन्म के बारे में कुछ जानते ही नहीं हैं तो सजा का मतलब। ऐसी सजा से क्या लाभ। अतः पूर्वजन्म के कर्मों का फल बताना सिर्फ काल्पनिक उड़ान है। हो सकता है इंसान को अत्यधिक दुखी अवसादग्रस्त स्थिति से बाहर लाने के लिए इस प्रकार सांत्वना देने का उपाय ढूँढा गया हो, जिस प्रकार अत्याचार-अनाचार की बाढ़ आ रही है। उपरोक्त मान्यता अपने आप खारिज हो जाती है। सजा देने का मकसद ही खत्म हो जाता है। अतः उपरोक्त मान्यता तर्कसंगत नहीं है।
कुछ पाठक यह तर्क दे सकते हैं एक व्यक्ति राजघराने में पैदा होता है और जीवन भर मस्त जीवन बिताता है परन्तु दूसरी तरफ एक मजदूर का बेटा जिन्दगी भर कड़ी मेहनत कर भी बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता। ऐसा क्यों होता है? क्या यह पूर्व जन्मों का फल नहीं है? उसका उत्तर है ,इंसान भी एक जीव है जो अन्य वन्य प्राणियों के समान है। परन्तु दिमाग के कारण वह सुख दुख का अनुभव करता है। वन्य जीवों में जो ताकतवर होता है वह अपना और अपने बच्चों का अच्छे से परवरिस करता है। कमजोर जीव परेशान होकर मर भी जाते हैं। गरीब और अमीर मानव समाज की ही देन हैं। अमीर को ताकतवर व गरीब को कमजोर प्राणी कहा जाये तो गलत न होगा। अब आगे ऐसे भी देख सकते हैं, मुहल्ले में गली के कुत्ते घर-घर जूठन खाकर गुजारा करते हैं और समय समय पर लात घूसे भी खाते हैं परन्तु एक पालतू कुत्ता इंसानों की भांति उत्तम आहार लेता है और कारों में सैर करने जाता है। इसी प्रकार पालतू गाय, भैंस, बकरी, ऊँट, घोड़े अथवा चिड़ियाघर में बसे जानवरों को खाद्य पदार्थ की समस्या से नहीं जूझना पड़ता अन्यथा जीवों का अधिकांश समय भूख मिटाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। क्या अब यह कहा जाये पालतू जानवरों ने पहले जन्म में अच्छे कार्य किये थे। गलत-सही कार्यों का निर्णय सिर्फ दिमागी प्राणी कर सकता है अर्थात मानव के अतिरिक्त कोई जीव इस स्थिति में नहीं है जो अपने कार्यों का आंकलन कर सके।
ईश्वर के अवतार की अवधारणा
लगभग सभी धर्मों के संस्थापक ईश्वर के अवतार माने जाते हैं जैसे हिन्दू धर्म में राम और कृष्ण, मुस्लिम धर्म के मौहम्मद, सिखों के गुरु नानक, ईसाईयों के ईसा मसीह इत्यादि। इसी प्रकार जब पृथ्वी पर अन्याय, अत्याचार, अनाचार बढ़ता है, ईश्वर पृथ्वी पर अवतार लेते हैं और यह भी मान्यता है वे ही अवतार लेकर दुनिया में सत्य और धर्म का राज स्थापित करते हैं। ईश्वर के अवतार की धारणा स्वयं उनके सर्वशक्तिमान होने की धारणा खारिज करती है। जो सर्वशक्तिमान है उसे अवतार लेकर अपने उद्देश्यों को पूरा करने की क्या आवश्यकता है? जिसके इशारों से कार्य पूरे होते हों तो इतना बड़ा अध्यवसाय करने के पीछे क्या कारण है? यदि उनका यही तरीका है जनता के कष्टों के निवारण का, तो आज क्या जनता कम कष्ट में है? आज दुनिया में राक्षसों , गुण्डों बदमाशों की कमी है जो वे इस समय अवतार लेना उचित नहीं मानते।
जिन्हें भी हमारा समाज ईश्वर का अवतार मानता है। वास्तव में वे सभी आदरणीय, सम्माननीय महापुरुष थे। वे सभी समाज के सच्चे सेवक थे। उन्होंने समाज को एक दिशा प्रदान की उसे कष्टों से लड़ने का मार्ग दिखाया। अतः वे सभी सम्मान के पात्र हैं। प्रत्येक व्यक्ति को उनकी सेवाओं का कृतज्ञ होना चाहिये। परन्तु यह मानव जाति की खूबी है कि वह जिसके प्रति कृतज्ञ होती है उसकी पूजा करती है। पांच या सात सौ साल पश्चात भारत में महात्मा गांधी द० अफ्रीका में नेल्सन मण्डेला और अमेरिका में अब्राहम लिंकन भी ईश्वर के अवतार माने जायेंगे, पूजे जायेंगे।
स्वर्ग-नरक की अवधारणा
स्वर्ग नर्क अर्थात हैल-हैविन की अवधारणा को अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है जैसे हिन्दू धर्म में स्वर्ग-नरक, मुस्लिम धर्म में जन्नत-दोजख, ईसाई धर्म में हैविन-हैल परन्तु धारणा एक समान ही है। अर्थात इंसान मरणोपरांत अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग-नर्क लोक का भागीदार बनता है। यानि कि सद्कर्म करके इंसान को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और दुष्कर्म अथवा पाप कर्म करके नरक की प्राप्ति होती है। स्वर्ग पाने वाला सुखपूर्वक रहता है और नर्क का भागीदार अनेक प्रकार के दंडों का भागीदार होता है जैसे हिन्दू धर्म के अनुसार उबले तेल में डाला जाता है, कभी छुरियों से, कुल्हाड़ी से काटा जाता है और कभी बर्फ की सिल्ली पर लिटाकर ठिठुरने के लिए छोड़ दिया जाता है, कभी भयानक जानवरों के बीच छोड़ा जाता है तो कभी कोड़ों से मारा जाता है आदि-आदि। जब मानव मर जाता है तो उसका शरीर नष्ट हो जाता है अतः बिना शरीर के वह स्वर्ग या नर्क जाता होगा जिसे आत्मा रूपी माना गया है। आत्मा अर्थात जिसका कोई भौतिक शरीर नहीं होता। शरीर के बाद आत्मा को अपने शरीर द्वारा किये कर्म याद रहते होंगे, पता नहीं। आत्मा जो सिर्फ हवा के रूप में अर्थात निराकार है उस पर खौलते तेल, कुल्हाड़ी, भयानक जानवर जैसे भौतिक तत्व क्या असर डालते होंगे? समझ से परे है और स्वर्ग-नर्क में उपरोक्त भौतिक वस्तुओं का होना स्वयं एक प्रश्न खड़ा करते है? फिर क्या फर्क है पृथ्वीलोक और यमलोक में। सारे तथ्य परस्पर विरोधाभासी हो जाते हैं।
मेरा यहाँ पर उपरोक्त विश्लेषण करने का अर्थ कदापि यह नहीं है कि अपने धर्म संस्थापकों पर संशय व्यक्त किया जाये। सभी मान्यताएँ एक अच्छे उद्देश्य को लेकर बनायी गयी थी। जिस समय संसार में संचार व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था पूरी विकसित नहीं थी ऐसी धारणाएं बनाकर ही इंसान के दुष्कृत्यों को नियन्त्रित करने का प्रयास किया गया होगा। इंसान को समाज विरोधी कार्यों को रोकने का एकमात्र रास्ता यही था। परन्तु वर्तमान समय में जब पूरा विश्व सिमट कर गांव बन गया है। संचार क्रान्ति, अपराध नियन्त्रण, उच्च तकनीक विकसित हो गयी है, विभिन्न आधुनिक हथियारों का विकास हो चुका है। अधिकतर देशों में जनता अपना शासन स्वयं अपने प्रतिनिधि चुनकर चलाती है और अपनी आवश्यकतानुसार अपराध नियन्त्रण के लिए कारगर कानून बनाकर सामाजिक व्यवस्था को देखा जा सकता है। सरकार की इच्छा शक्ति मजबूत है तो अपराध नियन्त्रण कोई समस्या नहीं हो सकती। अतः अब मिथ्या स्वर्ग नर्क की अवधारणा पालने का औचित्य भी नहीं रह गया है। यह भी सत्य है, कुछ न कुछ अपराध हर युग में होते आये हैं और आगे भी पूरा अपराध निवारण करना असम्भव ही है। तर्कहीन धारणा को पालकर इंसान को दुष्कर्मों से बचाये रखना सम्भव नहीं है।
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(शेष अगले ब्लॉग में देखिये )

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