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भारतीय निर्वाचन प्रक्रिया की विडंबनाएं(कांटेस्ट)

jara sochiye
jara sochiye
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हमारा देश दुनिया में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जो सबसे बड़ी आबादी यानि लगभग सवा सौ करोड़ लोगो का प्रतिनिधित्व करता है.परन्तु आजादी के पैसंठ वर्षों पश्चात् भी देश की जनता अपनी बुनियादी समस्याओं से निजात पाने के लिए तरस रही है. देश में जनता का अपना शासन होते हुए भी जनता को वांछित लाभ क्यों नहीं मिल पाया?i यह एक ऐसा प्रश्न है जो हमें लोकतान्त्रिक देश का नागरिक होने के गर्व से वंचित कर रहा है.क्यों जनता आज भी बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों से त्रस्त है? क्यों आज भी देश में जातिवाद,क्षेत्र वाद,भाई भतीजा वाद,धार्मिक आतंकवाद हावी है?क्यों आजादी के इतने समय पश्चात् भी जनता असुरक्षा,गुंडा गर्दी,प्रदूषण,दहशत,अव्यवस्था(अराजकता) के वातावरण में जीने को मजबूर है?
शायद हमने देश में लोकतंत्र कायम तो किया परन्तु सही मायेने में हमारे जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते,उनको चुने जाने की प्रक्रिया में अनेक खामिया रह गयी हैं,जिनके कारण वे जनता की आकाँक्षाओं के अनुरूप काम नहीं करते.चुने हुए प्रतिनिधियों का ध्यान अपनी तिजोरियों को भरने की ओर बना रहता है वे देश के सेवक नहीं बल्कि व्यापारी हैं जो अपने बाहुबल से,अपने धन बल से चुनाव जीतते हैं और फिर अपने खर्चे कई गुना लाभ के साथ वापस भ्रष्ट साधनों से एकत्र करते हैं.अतः जनता की आवश्यकताएं.आकांक्षाएं बेक फुट पर रह जाती हैं.इस स्थिति के लिए जितने हमारे जनप्रतिनिधि, या चुनावी प्रक्रिया, दोषी है , उससे भी अधिक हम लोग(जनता) स्वयं भी दोषी है हो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए अपराधियों,बहु बालियों,चरित्रहीन नेताओं को चुन कर भेजते हैं. जब कोई भी उम्मीदवार(नेता) हमसे वायदा करता है की उसके जीतने पर साइकिल,लैपटॉप,सिलाई मशीन,अथवा बेरोजगार भत्ता जैसे प्रलोभन दिए जायेंगे, हम उसी नेता के पीछे हो लेते है उसे चुनाव में विजय दिला देते है. जो प्रत्याशी वोट के बदले नोट ,शराब या दावत दे देता है हम उसे ही वोट कर देते है और अपने दुर्भाग्य को स्वयं लिख देते हैं. जो पढ़े लिखे व्यक्ति है जिनमे सोचने समझने की अधिक ताकत है वे चुनाव को प्रमुखता न देते हुए वोट डालने ही नहीं निकलते,अपना वोट बेकार कर देते हैं.और देश को सही नेता देने का मौका गवां देते हैं.जब हम अपने कर्तव्य से विमुख रहेंगे तो शासक से कैसे उम्मीद कर सकते हैं की वह अपने कर्तव्यों का निर्वाह जनता के हिaत में करेगा ,देश के हित में करेगा.
वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में जो जन प्रतिनिधि चुनकर आते है वे कभी कभी तो सिर्फ अपने क्षेत्र के कुल मतदाताओं के पंद्रह या बीस प्रतिशत वोटरों के समर्थन से जीत कर आते है,यानि क्षेत्र की अस्सी प्रतिशत जनता जिसे नकार(समर्थन नहीं करती) चुकी है, वह चुनाव जीत कर सत्ता के गलियारों तक पहुँच जाता है,ऐसे नेता को जनता का प्रतिनिधि कभी भी नहीं कहा जा सकता. अतः वह जनता की भावनाओं को कैसे समझ सकता है,वह जनहित में कार्य कर कैसे सकता है?
जो नेता अव्यवहारिक वायदे घोषणा पत्र में करते है,जनता की भावनाएं भड़काते हैं,और विकास के स्थान पर जातिवाद,धर्मवाद जैसे संवेदनशील मुद्दों पर जनता को गुमराह कर चुनाव जीत जाते हैं, और सत्ता हथियाने में कामयाब हो जाते हैं.उन्हें जनता की समस्याओं, आकाँक्षाओं, आवश्यकताओं से क्या लेना देना?
जो प्रत्याशी, अशिक्षित है,बाहू बलि है,धन कुबेर का मालिक है, या चरित्रहीन है, वह जब चुनाव जीतता है, तो उससे जनता किस भले की बात सोच सकता है ?वह नौकरशाही को कैसे नियंत्रण में रख सकता है, वह देश हित कैसे निर्णय ले सकता है क्योंकि उसकी क्षमता ही नहीं है,उसे एक ही बात याद रहती है कि अपने पद पर रहते हुए वह अपना,या अपने परिवार का भला कैसे कर सकता है? अपना और अपनी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित कैसे कर सकता है?
देश के वर्तमान हालातों की जिम्मेदार कहीं न कहीं हमारी चुनावी प्रक्रिया में व्याप्त खामियां हैं,जिसमे कुछ बिन्दुओं पर नीचे प्रकाश डाला गया है;-
१,जब सरकारी नौकरी के लिए कोई चपरासी के पद के लिए आवेदन करता है,तो उसे भी निम्नतम शैक्षिक योग्यता आवश्यक होती है, तो फिर सत्ता के शीर्ष पर बैठने वाले नेताओं की न्यूनतम योग्यता का निर्धारण क्यों नहीं किया जाता? सांसद, विधायक, पार्षद के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता का होना क्यों आवश्यक नहीं? प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री बनने के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और अनुभव का होना आवश्यक क्यों नहीं?
२,लोकतंत्र को जनता के तथाकथित बहुमत से संचालित सरकार मानना ही काफी नहीं उसे कुल मतदाता का बहुमत प्राप्त होना भी आवश्यक होना चाहिए.अर्थात जिस प्रत्याशी को कुल मतदाताओं का आधे से अधिक का समर्थन मिला हो, वही उस क्षेत्र का प्रतिनिधि बनना चाहिए.अतः चुनाव प्रक्रिया को आवश्यक रूप से सुधार कर बहुमत से जीते हुए व्यक्ति को ही जनप्रतिनिधि बनाया जाना चाहिए.पर्याप्त बहुमत न मिलने की स्थिति में चुनाव स्थगित माना जाय. और दोबारा चुनाव कराये जाएँ.यदि मतदाता से प्रथम वरीयता और द्वितीय वरीयता पर राय ली जाये तो बहुमत प्राप्त प्रत्याशी ढूँढने में आसानी हो सकती है.
३,चुनाव कानूनों में आवश्यक संशोधन कर दागी नेताओं,अपराधियों,बाहूबालियों को चुनाव में भाग लेने से रोका जाना महती आवश्यक है.
४,कोई भी जन प्रतिनिधि जनता की आकाँक्षाओं के अनुरूप कार्य नहीं करता,उसे भ्रष्ट कार्यों में लिप्त पाया जाता है,या जन भावनाओं को पूर्ण नहीं करता तो जनता को अधिकार दिया जाय की वह उसे वापस बुला ले,उसे पूरे पांच वर्ष तक झेलने की मजबूरी से मुक्त किया जाय.
५,जब हम प्रिंट मीडिया,इलेक्ट्रोनिक मीडिया में विज्ञापन करने के लिए नियम बना सकते हैं,की कोई भी उत्पादन कर्ता अपने विज्ञापन में अपने उत्पाद के गुणों का बखान तो कर सकता है परन्तु किसी अन्य उत्पाद या उत्पादन कर्ता के विरुद्ध कुछ नहीं बोल सकता, तो चुनावों में भाषण या अन्य प्रचार के समय नेताओं को व्यक्तिगत आरोपों से क्यों नहीं रोका जा सकता? चुनावों में व्यक्तिगत आक्षेपों.आरोपों,प्रत्यारोपों पर अंकुश लगना ही चाहिए,शालीनता का व्यव्हार किया जाना ही लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है. सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने वालों की भी मर्यादा, मान-सम्मान का ध्यान रखा जाना चाहिए.गालियां,जूते खाने के पश्चात् बना मंत्री नौकर शाहों के समक्ष अपना सम्मान कैसे प्राप्त कर पायेगा? उन्हें कैसे नियंत्रित करेगा?
६,चुनाव आयोग के अनेक सद्प्रयासों के बावजूद आज भी फर्जी मतदान की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता, अतः यदि संभव हो सके तो प्रत्येक बूथ पर पूरी चुनावी प्रक्रिया की वीडियो फोटोग्राफी की व्यवस्था निष्पक्ष चुनावो के लिए आवश्यक है.

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