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नास्तिकता और इंसानियत

jara sochiye
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आज दुनिया में अनेकों व्यक्ति स्वयं को किसी धर्म से बंधना नहीं चाहते।ऐसे लोगों को मानव समाज ‘नास्तिक’ के नाम से पहचानता है। नास्तिक का शाब्दिक अर्थ है ‘न-अस्तिक’ अर्थात जो आस्तिक न हो। अतः पहले हमें ‘आस्तिक’ को समझना होगा ‘आस्तिक’ उस व्यक्ति को कहा जाता है जो अदृश्य शक्ति में विश्वास करता हो। उसे मान्य है कि यह विश्व किसी इष्ट देव द्वारा संचालित है वही इसका निर्माता और सहायक है। आस्तिक के इष्ट देव एक या अनेक हो सकते हैं।विभिन्न समाजों में भिन्न नामों से भिन्न धर्मों एवं भिन्न नियमों से संचालित हो सकते हैं। किसी प्रकार से आध्यात्मवाद में विश्वास करने वाला आस्तिक कहलाता है। वह अपने धर्म ग्रन्थांे अर्थात गीता, पुराण, बाइबिल, कुरान, गुरु ग्रन्थ साहब आदि में वर्णित उपदेशों को ईश्वर की वाणी के रूप में स्वीकार करता है। उसे विश्वास है यह विश्व उसके इष्ट देव ने बनाया है और उसके इशारों से संचालित होता है। उसकी इच्छा के बिना संसार में कुछ भी घटित होना सम्भव नहीं है। वह सर्वशक्तिमान है उसकी पूजा अर्चना कर उसके कोप से बचा जा सकता है। हमें अपने धर्म के अनुसार नियमों का पालन करना चाहिये अन्यथा अगले जन्म में दण्ड का भागी होना पड़ेगा। वे अपनी दिनचर्या एवं जीवन को धर्म में वर्णित आचार व्यवहार द्वारा चलाते हैं। अब वह चाहे तर्कसंगत हो या नहीं, प्रासंगिक हो या नहीं, वांछनीय हो अथवा नहीं। धर्म की आचार संहिता का पालन करना अपने इष्ट देव को प्रसन्न करना है।जो व्यक्ति उपरोक्त धारणाओं, मान्यताओं, विश्वासों को स्वीकृति नहीं देता, वह ‘नास्तिक’ कहलाता है। वह ईश्वरीय सत्ता को बिना ठोस तर्कों के स्वीकार करने को तैयार नहीं है। वह सिर्फ आस्था के आधार पर इष्ट देव की स्वीकृति को उचित नहीं मानता।
‘नास्तिक’ का अर्थ यह कदापि नहीं है कि ये लोग सामाजिक नहीं होते। ये लोग मानवता (इंसानियत) को पूर्ण सम्मान देते हैं। वे किसी धर्म के अनुयायी के साथ भेदभाव नहीं करते। बल्कि प्रत्येक मानव को एक ही दृष्टि से देखते हैं। यदि कोई धार्मिक व्यक्ति इंसानियत का पालन नहीं करता, तो वह धर्म न मानने वालों से बेहतर नहीं हो सकता जो इंसानियत के दायरे में रहकर अपने व्यवहार को अंजाम देते हैं। प्रत्येक धर्म के लोगों में ‘नास्तिक’ लोग विद्यमान हैं। क्योंकि जन्म लेने से पूर्व किसी से उसका मनपसन्द धर्म पूछने का मौका नहीं दिया जाता। अतः जहाँ धर्म निभाने की बाध्यता में कठोरता का बर्ताव होता है वे लोग अपनी धारणा को व्यक्त नहीं कर पाते और धर्म के नियम निभाने का आडम्बर करते हैं। आस्था दबाव से उत्पन्न नहीं की जा सकती।
हिन्दू धर्म में किसी को किसी धार्मिक कृत्य को निभाना मजबूरी नहीं होती। प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है, अपने इष्ट देव को मानने या न मानने को। परन्तु समाज का अहित करने वाला एवं हिंसा करने वाला व्यक्ति स्वीकार्य नहीं है। हमारे धर्म में बहुत लोग नास्तिक होते हैं परन्तु इंसानियत के आदर्श होते हैं इसलिए समाज को कोई आपत्ति नहीं है। जबकि मुस्लिम धर्म में किसी को अपने धर्म के विरुद्ध जाने की इजाजत नहीं है और प्रत्येक धार्मिक गतिविधि में भाग लेना प्रत्येक मुस्लिम के लिए मजबूरी होती है. अतः कोई भी खुलकर अपने को नास्तिक नहीं घोषित कर सकता अथवा धर्म के आचरण से इंकार नहीं कर सकता।
आज के युग में नास्तिक बुद्धिमान लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है। रुस जैसे देशों में बहुतायत में धर्म न मानने वाले मिल जायेंगे। यों तो ‘नास्तिक’ जनमानस सभी धर्मों में हमेशा मौजूद रहे हैं और आज भी मौजूद हैं और नित्य प्रति तर्क आधारित नियमों पर जोर देने वालों का अस्तित्व बढ़ रहा है। परन्तु धर्मों में निहित कड़े नियमों के कारण, समाज से बहिष्कृत हो जाने के भय के कारण स्पष्ट रूप से सामने आने से कतराते हैं। प्राचीन काल में अर्थात धार्मिक उद्भव काल में जो व्यक्ति किसी धर्म का अनुयायी नहीं होता था, अपने जन्म धर्म के अन्तर्गत धार्मिक आयोजनों में शामिल नहीं होता था, अर्थात ‘नास्तिक’ को हेय दृष्टि से देखा जाता था और धूर्त कहलाता था। प्राचीन काल में जब मानव विकास अपने प्रारम्भिक चरणों में था, समाज को धर्म और धार्मिक नियमों से नियन्त्रित किया जाता था। उस समय आज की भांति संचार माध्यम,यातायात माध्यम एवं कानूनी, न्यायिक व्यवस्थाएँ नहीं थी जिसके अभाव में मानव व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे। मानव को अपराध से रोकने के लिए ‘भय’ एक आवश्यक तत्व है जो उस समय धर्म द्वारा ही सम्भव था। और धर्मों का समाज एवं मानव को नियन्त्रण करने में सफलतापूर्वक सदुपयोग हुआ। मानव मात्र की मजबूरी बन जाती थी, समाज में रहने के लिए समाज के नियम मानने के लिए धर्म का पालन भी आवश्यक था परन्तु आधुनिक युग में शासकीय व्यवस्था अर्थात कानूनी न्यायिक प्रणाली इतनी सक्षम है एवं साधनों से सुसज्जित है, यदि शासक की इच्छाशक्ति मजबूत है तो मानव को अपराध से रोकना असम्भव नहीं है। अनेक यूरोपीय देश, खाड़ी देश इस बात के गवाह हैं यदि कानून व्यवस्था चाक चौबन्द है तो मानव स्वतः ही समाज के लिए हितकारी बना रह सकता है। ऐसे विकसित देशों में अपराध संख्या नगण्य पायी जाती है। जो यह सिद्ध करता है कि कानून का भय मानव को पूर्ण रूप से नियन्त्रित करने में सक्षम है। हमारे देश में सुस्त न्याय व्यवस्था, भ्रष्ट पुलिस कार्य प्रणाली, स्वार्थ भरा राजनीतिज्ञ अथवा शासक एवं लचर एवं जटिल कानून बढ़ते अपराधांे के लिए दोषी हैं। जो बार-बार समाज को धर्म द्वारा नियन्त्रित करने को मजबूर कर रहे हैं और मानव की सोच को संकुचित कर विकास अवरूद्ध करने का माध्यम बन रहे हैं। सारांश यह है कि ‘नास्तिक’ को धूर्त मानना प्राचीन काल की मजबूरी थी। परन्तु आधुनिक युग में इस सोच को ”नास्तिकता“ को तिरस्कृत करना मानवता के विरूद्ध है, मानवीय विकास के विरूद्ध है एवं स्वतंत्र सोच को कुण्ठित करना है। यदि कोई ‘नास्तिक व्यक्ति इंसानियत के दायरे में रहकर सामाजिक व्यवस्था का पालन करता है तो वह पूर्ण सम्मान का पात्र है। धर्म के प्रति लगाव रखना अपराधिक छवि से मुक्त रहने की गारंटी नहीं हो सकती। धर्म की आड़ में दुष्कर्म करने वालों की आज भी कमी नहीं है। कुछ अप्रासंगिक धार्मिक नियमों, जिससे मानव स्वतन्त्रता पर आघात होता हो, अमानवीय है, इंसानियत के विरूद्ध है,अर्थात धर्म को न मानना अपराध नहीं हो सकता परन्तु सामाजिक नियमों का पालन न करना अपराध है। इंसानियत के विरूद्ध कार्य करना अपराध है।
नास्तिकता का अर्थ यह कदापि नहीं है वह व्यक्ति जो नास्तिक है समाज के विरूद्ध है, इंसानियत के विरूद्ध है अथवा अपराधिक प्रवृत्ति का है। नास्तिकता से तात्पर्य सिर्फ ऐसे व्यक्ति से है जो किसी धर्म का समर्थक नहीं है, वह अध्यात्म में विश्वास नहीं रखता, वह ईश्वर की सत्ता को सिर्फ तर्क के आधार पर स्वीकार करना चाहता है। सिर्फ आस्था अथवा कल्पना के आधार पर बनाये गये धर्म और धार्मिक नियमों को स्वीकार नहीं करना चाहता। विशेष बात यह भी है तर्क संगत धार्मिक या अधार्मिक नियमों से परहेज नहीं करता बल्कि स्वीकार करता है, उदाहरण के तौर पर तुलसी का महत्व, गाय की उपयोगिता, गंगाजल की गुणवत्ता, नमाज की मुद्राएँ (जो स्वास्थ्यप्रद हैं), एकाग्रता का प्रयास आदि जो भी मानव कल्याण से सम्बन्धित हैं उन्हें अपनाने में कोई हिचक नहीं है। किसी धर्म का अनुयायी होना आज आवश्यक नहीं रह गया है बल्कि सामाजिक होना इंसानियत के दायरे में रहना अत्यंत आवश्यक है। आज धर्म की आड़ में,धर्माधिकारियों द्वारा नित्य प्रति अवांछनीय कार्य उजागर हो रहे हैं, अनेक बार धर्मालयों में अपराध प्रकाश में आते रहते हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो धर्म के नियमों के पालन का पूरा ढांेग करते हैं और अनेक समाज विरोधी कार्यों में लिप्त रहते हैं। मन्दिरों में दिन रात घंटे बजाते हैं और अपने व्यापार में सारे अवांछनीय कार्य करने से नहीं चूकते अथवा जिसकी नौकरी करते हैं उसी को नुकसान पहुंचाकर अपनी जेबें भरते हैं। अपने व्यवहार में पवित्रता लाये बिना धर्म अपनाना महत्वहीन हो जाता है। उन्हें तो धर्मद्रोही और मानव विरोधी कहा जाये तो गलत न होगा। प्रत्येक धर्म का मुख्य उद्देश्य मानव को इंसानियत के दायरे में रखना रहा है यदि धार्मिक होकर भी वह सामाजिक नहीं हो सका तो उसकी धार्मिकता अक्षम्य है। वह समाज का अपराधी है, मानवता का अपराधी, गैर कानूनी है। ऐसे व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का पर्दाफाश होना चाहिये। उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिये। प्राचीन काल में नास्तिक होना, अधार्मिक होना समाज के लिए घातक था, परन्तु अब धार्मिकता का ढोंग रचकर इंसानियत के विरूद्ध कार्य करना घातक है।
पहले नास्तिक वे लोग थे जो अपने आर्थिक लाभ के लिए धर्म का तिरस्कार करते थे अथवा धार्मिक नियमों का उल्लंघन करते थे, वे दुर्बुद्धि एवं दुष्प्रवृत्ति के लोग हुआ करते थे और असामाजिक कार्यों जैसे चोरी, लूट डकैती, हत्या आदि अपराधों में संलग्न रहते थे। आज का नास्तिक तर्क के कारण अधार्मिक है और बुद्धिजीवी, सुसंस्कृत, सामाजिक, प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। अतः समाज के लिए किसी भी प्रकार से नुकसानदेह नहीं है क्योंकि वे इंसानियत को अत्यधिक महत्व देते हैं।किसी की सोच पर कोई अंकुश नहीं लगा सकता। भयपूर्वक यदि कोई व्यक्ति धर्म का पालन करता है तो सिर्फ औपचारिकता भर होती है। किसी को भी यदि सम्मान पाना है तो प्यार से सच्चा सम्मान पा सकता है, परन्तु भय से किया गया सम्मान औपचारिक होता है। अतः वह फलदायक नहीं हो सकता। अतः किसी की सोच पर दबाव नहीं बनाया जाना चाहिये।
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