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शायद कभी संविधान निर्माताओं ने सोचा भी नहीं होगा की कभी ऐसे स्वार्थी नेता भी इस देश में अवतरित होंगे, जिनका उद्देश्य जन सेवा या देश सेवा नहीं बल्कि येन केन प्रकारेण धन कुबेर पर कब्ज़ा करना होगा ,व्यापार करना होगा और आगे आने वाली सात पीढ़ियों तक को सुरक्षित कर लेने की मंशा लिए हुए राजनीति में उतरेंगे. आज यही सब कुछ हो रहा है अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए वे जनता को किसी भी प्रकार से मूर्ख बनाकर सत्ता में बने रहने की जुगत में रहते हैं. स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी है यदि कोई बहु संख्यक समाज अर्थात हिन्दुओं का पक्ष लेता है तो सांप्रदायिक कहलाने लगता है.और जो मुस्लिमों के समर्थन में बोलता है अर्थात उनके लिए सुविधाओं की घोषणा करता है तो वास्तविक धर्मनिरपेक्ष की श्रेणी में आ जाता है.अर्थात बहुसंख्यक का सदस्य होना गुनाह होता जा रहा है. इस प्रकार की ओछी राजनीति ने धर्मनिरपेक्ष की मूल भावना को ही नष्ट कर दिया. धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर समाज को तोड़ने का षड्यंत्र किया गया. सभी धर्मों को आपस में वैमनस्य पैदा कर उपद्रव कराये गए. सभी पार्टियों ने आरोप प्रत्यारोप कर एक दूसरे पर लांछन लगाये गए और समाज को अराजकता के हवाले कर दिया.
क्या होनी चाहिए धर्मनिरपेक्ष की परिभाषा;
धर्म निरपेक्षता की परिभाषा को इस प्रकार से लिया जाना अधिक उचित हो सकता था. शासन की ओर से किसी भी धर्म को प्रमुखता नहीं मिलेगी. उसके लिए सभी धर्म एक समान है सरकार की निगाह में कोई भी व्यक्ति किस धर्म से सम्बंधित है, उसे जानने समझने की आवश्यकता नहीं होगी, उसके लिए सभी नागरिक सिर्फ भारतीय नागरिक होंगे सब पर समान कानून लागू होंगे.
कोई भी कानून,कोई भी सरकारी संस्था धर्म के आधार पर परिभाषित नहीं होगा (जैसे अविभाजित हिन्दू परिवार(H.U.F), MUSLIM PERSONAL LAW(SHARIYAT)कानून, भारतीय मुस्लिम कानून-जायदाद, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी,बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी इत्यादि) और न ही किसी एक धर्म को लेकर कोई कानून बनाया जायेगा.
धर्म निरपेक्षता अर्थात धर्म के मामले में तटस्थ रहने की भावना किसी के साथ कोई भेद भाव नहीं. सरकार की ओर से किसी भी नेता या सरकारी अधिकारी को सरकारी तौर पर किसी भी धार्मिक कार्य से दूर रहने का प्रावधान होना चाहिए था व्यक्तिगत तौर पर वह किसी भी धर्म के क्रिया कलापों में उपस्थित होने को स्वतन्त्र होता.
राजनैतिक नेताओं के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के कारण आजादी के पश्चात् सैंकड़ों बार धार्मिक दंगे हुए जिनका नेताओं ने भरपूर लाभ उठाया. जनता को भ्रमित कर अपने पक्ष में वोट एकत्र किये. पीड़ित लोगों के लिए सहानुभूति दिखा कर पूरे समुदाय को अपने समर्थन में ले लिया. जिसने जनता में आपसी कलह को बढ़ावा दिया और असहिष्णुता को बढ़ावा मिला. प्रत्येक पार्टी हर समुदाय को अपने पक्ष में करने के लिए अनेक छद्म उपाय अपनाये गए.नतीजा तथा कथित धर्मनिरपेक्षता ने जनता का अहित ही किया.
अब तो राजनैतिक नेता और भी आगे निकल चुके हैं वे जाति एवं उप जातियों पर आधारित राजनीति पर विश्वास करने लगे हैं.जातीय आधारित अपने उम्मीदवार खड़े किये जाते हैं और प्रत्येक जाति विशेष के लिए अपनी योजनाओं की घोषणा की जाती है. कभी पिछड़े वर्ग की पार्टी अपना पलड़ा भारी कर् लेती है तो कभी यादव समूह की पार्टी प्रदेश सरकार पर हावी हो जाती है.जाति आधारित राजनीति के कारण विकास के मुद्दे बहुत पीछे रह जाते हैं,इस प्रकार देश और प्रदेश गरीब बने रहते हैं और नेता मलाई चाटते रहते हैं.उत्तरप्रदेश और बिहार इसका बड़ा उदाहरण है.
धर्मनिरपेक्षता जैसे पवित्र उद्देश्य को राजनेताओं के स्वार्थ ने दिशा हीन कर देश के विकास को अवरुद्ध कर दिया है,इस धर्मवादी और जातिवादी मानसिकता से जनता के उभर पाने की उम्मीद हाल फिलहाल तो नहीं है.(SA-185B)
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